Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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"यह बर्तन मेरा नहीं। जिसका है,उसको दीजिए। मैं तो यह टब ही ले जाऊंगा।" क्या किया जाए ! तब टब उठाने में मैंने ही उनकी मदद की । बापूजी पानी ले गए। वापस आए तब मैंने कहा, "बापूजी, मैं हारा । आप तो सत्याग्रह के आचार्य हैं; आपके आगे हमारा कहां तक बस चलेगा और भगवान भी तो आपके ही पक्ष में हैं, इसीलिए आपको यह टब मिला । अब आप कहेंगे मैं वैसा ही करूंगा। आप इस टब को छोड़ दीजिए।" बापूजी हंस पड़े और मान गए। सब लड़के यह तमाशा देख रहे थे। बापूजी को हराने के लिए उन सबने हो सके उतना सब किया था। दौड़-दौड़कर जाते और दौड़-दौड़कर आते कि जिससे बापूजी की बारी आए ही नहीं। ___मैं हारा; बापूजी जीते। उसमें हम सबको मजा आया था, लेकिन लड़कों की सहानुभूति पूरी मेरे साथ थी।
मैं जब शान्तिनिकेतन में था और बापूजी वहां आए तब बर्तन मांजने के लिए बंगाली लड़कों को मैंने राजी किया था, यह बापूजी ने देखा था, इसलिए आश्रम की प्रार्थना में उस बात का उल्लेख करके बापूजी ने कहा कि बर्तन मांजने की भी एकता है । काका के पास से सब आश्रमवासियों को सीख लेनी चाहिए। यह बात आश्रम के प्रारम्भ की नहीं, किन्तु आश्रम में एक छोटी-सी शाला शुरू होने के बाद की है।
आश्रम में पहले से बर्तन मांजने के लिए नौकर नहीं थे। सब बर्तन ही मांजते थे। हरेक आदमी अपनी अपनी थाली, कटोरी, लोटा इत्यादि अपने-आप साफ करते। रसोई के बर्तन हममें से अमुक लोग मांजकर रख देते। इसमें मैंने सुधार किया। सबकोपरोस लेने के बाद दाल-चावल के जूठे बर्तन सूखकर सख्त हो जाते थे। मैंने तय किया कि खाने के लिए सब एकत्र हो जायं, तब पकाने के बर्तन में से चावल दूसरे बर्तन में निकालकर उसे ढंक दिया जाय और पकाये गये बर्तन में पानी डालकर बाजू पर रख दिया जाय, दाल के बर्तन का भी वैसा ही किया जाय।
इस तरह बहुत-सी मेहनत कम हो गई। फिर बड़े-बड़े बर्तन मांजने का काम तो रहता ही था।
एक दिन प्रार्थना के बाद मैंने जाहिर किया, "आज से बर्तन मांजने की व्यवस्था को नाम दिया जाता है 'मार्जन मंडल । जब बर्तन मांजे जायेंगे तब शिक्षकों में से हम बारी-बारी से, किसी अच्छी पुस्तक में से कुछ रोचक चीजें सुनाते जायेंगे और यदि इसमें से चर्चा छिड़ जाय तो मांजने वाले उस चर्चा में शामिल हो सकेंगे।" फिर मैंने कहा, "कोई भाई या बहन जोश में आकर यदि जोर-शोर से दलील करेंगे तो उसी जोश से बर्तन भी साफ होते रहेंगे, इसलिए इसमें फायदा ही है। मैंने शान्तिनिकेतन में यह उपाय आजमाया था। इसलिए सब बारीकियां मैं जानता था।
फिर तो पूछना ही क्या था ! नरहरिभाई, किशोरलालभाई, देवदास इत्यादि सभी चर्चा में भाग लेने लगे। जिनकी बारी नहीं थी, वैसे लोग भी मांग-मांगकर बर्तन लेकर बैठ जाते । चर्चा करते जाते और राख या मिट्टी लेकर बरतन मांजने जाते, धोते जाते । सत्याग्रहियों के लिए चर्चा के विषय कभी कम नहीं पड़ते। 'मार्जन मंडल' का काम पूरे वेग से चला।
आगे चलकर पुराने लोगों को बाहर के नये-नये काम लेने पड़े। हम तितर-बितर हो गये, फिर 'मार्जनमंडल' का क्या हआ, मैं नहीं जानता। आश्रम में नौकर नहीं होते। इसलिए सब आश्रमवासी मिलकर ही सारे बरतन मांजते होंगे, किन्तु 'मार्जन मंडल' जैसा संस्कृति केन्द्र आगे चला नहीं, यह तो आश्रम-जीवन की एक न्यूनता ही ठहरी।
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १५५