Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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की प्रेरणा से आई हुई राष्ट्रीय जागृति श्रीअरविन्द घोष की योगिक शक्ति — ये सारी चीजें प्रेरक और प्रोत्साहक थीं। फिर भी सारे राष्ट्र का तुरन्त उत्थान करने की आवश्यकता को पहुंच सके, ऐसी कोई संस्थागत प्रवृति दिखाई नहीं देती थी। कभी-कभी निराश होकर मैं कहता कि राष्ट्रव्यापी दूध का क्रान्तिकारी दही बनाने के लिए जो जामुन चाहिए सो तो अपने पास है । किन्तु जिसका दही हो सके, ऐसा दूध ही जनता में नहीं है । उसका क्या करना, उसको कहां से लाना ? यही थी मेरी उलझन ।
एक ही छोटा-सा, किन्तु निर्णयात्मक उदाहरण देता हूं ।
दिल्ली दरबार के समय सयाजीराव ने थोड़ा-सा स्वाभिमान दिखाया, इतने भर से उनको दबा देने के लिए ब्रिटिश नीति आगे आई । कुछ थोड़ा काम हो सके, इस लोभ से देशी- राज्य में, बड़ौदा में हम लोग गंगनाथ विद्यालय चलाते थे । उसके नियामक मण्डल में गायकवाड़ी राज्य के कई बड़े-बड़े अधिकारी थे । मुख्य नेता तो बैरिस्टर केशवराव देशपाण्डे थे । उन्होंने तो अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। लेकिन सब नियामकों ने गंगनाथ बन्द करने का निर्णय किया। उस वक्त मैंने कहा भी, " चाहे आप सब नियामक निकल जाएं, संस्था का नया मकान तैयार हुआ है सो हमको दें या न दें, आपके आश्रय के बिना ही हम गंगनाथ विद्यालय चलायेंगे । संस्था को जीवित रखने के लिए जरूरी पैसे जनता देगी। हम गंगनाथ विद्यालय बन्द नहीं करेंगे।"
इतना जोर तो मैंने दिखाया, किन्तु जनता में ऐसी घबराहट फैली हुई थी कि एकमात्र रामदासी सेवक अनन्त बुआ भरडेकर ही मेरे साथ रहने को तैयार हुआ, बाकी किसी कार्यकर्ता की हिम्मत न पड़ी। मैंने कहा, "दो तो दो, अथवा ढाई शिक्षक लेकर भी गंगनाथ चलायेंगे। संस्था बन्द क्यों की जाय ?"
मैंने जोर तो किया, किन्तु परिस्थिति मुझे सयानापन सिखाना चाहती थी। गंगनाथ के विद्यार्थियों में से एक भी विद्यार्थी विद्यालय में रहने को तैयार न हुआ। कई विद्यार्थी घर के गरीब थे, उनका खाने-पीने का खर्च भी संस्था देती थी। उनके संरक्षक सरकारी नौकर भी नहीं थे। फिर भी अंग्रेज सरकार का उग्र रुख देखकर भले थोड़े ही समय के लिए किन्तु जनता ऐसी सहम गई थी कि गरीब विद्यार्थी भी संस्था में रहने को तैयार न हुए। ऐसे अनुभव के बाद हमारे विद्यार्थी यदि राजकीय सरकारी स्कूलों में दाखिल होना चाहें तो राज्य की ओर से उसमें कोई मुश्किल उत्पन्न नहीं की जायेगी, इस तरह की विनती करने के लिए मुझे सरकारी विद्याधिकारी को मिलने जाना पड़ा। यह तो मेरे लिए बड़ा मर्माघात था। मैं हार गया, और हिमालय में जाकर आध्यात्मिक साधना करने का मैंने निर्णय किया । बेलगाम जाकर पारिवारिक उलझनें सब दूर कीं । यह भी एक बड़ा प्रकरण था । पत्नी को और बच्चे को मेरे ससुर के यहां रखकर उनके खाने-पीने की सब व्यवस्था की और “हिमालय की यात्रा को जा रहा हूं" इतना ही कहकर निजी और सार्वजनिक जीवन का अंत कर दिया। राष्ट्रमत के दिनों के मेरे साथी स्वामी आनन्द कब से हिमालय में पहुंच गये थे । उनको मैं लिखा कि मैं सब प्रवृत्तियों से मुक्त हो गया हूं। भगवान के पास से नयी प्रेरणा प्राप्त करने के लिए हिमालय आ रहा हूं । प्रयाग, बनारस और गया विस्थली जाकर माता-पिता का श्रार्द्ध किया । कलकत्ता जाकर रामकृष्ण मिशन के नेताओं से मिला । अनन्त बुआ मेरे साथ थे, उनके संतोष की खातिर हम अयोध्या पहुंचे। सब तरह से मुक्त होकर स्थायी रूप में हिमालय का रास्ता लिया और जीवन का एक हिस्सा पूरा किया।
१३८ / समन्वय के साधक