Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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८:: हिमालय और उसके बाद ___ जैसा कि ऊपर कहा गया है, बचपन के पिछले धर्मानुभव के बाद बुद्धिवाद, संशयवाद और नास्तिकता आई। यह भी उपयोगी ही साबित हुई। इसी तरह आत्मिक साधना की पूरी धुन लगने के पहले देश को आजाद करने के लिए उत्कट निष्ठा और समाज-सुधार की लगन मुझ में उत्पन्न हुई। यह भी नयी साधना के लिए अत्यन्त उपयोगी साबित हुआ। यदि ऐसा न होता तो मेरी साधना पुराने ढंग से चलती रहती और उसमें पुरानी रूढ़ियों की कृत्रिमता भी आ जाती। अमुक शक्तियां जिसे चमत्कार कहते हैं भी मुझ में प्रकट हों ऐसी इच्छा भी जाग्रत होती। फलस्वरूप भविष्य की सेवा के लिए मैं निकम्मा हो जाता और आध्यात्मिकता में भी जो नई गहराई आई है, सो नहीं आती।
जैसा कि मैंने मेरी पुस्तक 'हिमालय की यात्रा' में लिखा है देश दर्शन, प्रकृति की भव्यता और समाज-निरीक्षण-ये तीन चीजें मेरे साथ न होतीं तो मैं या तो टूरिस्टों के जैसा छिछला रहता अथवा हिमालय के कई पुराने ढंग के साधकों की तरह हिमालय का मेरे ऊपर कोई प्रभाव न हो पाता, और फिर तो हिमालय में रहनेवाले और सामान्य लोगों को शारीरिक आंखों से न दीखनेवाले योगियों की और अवतारी पुरुषों की बातें कहते रहने में ही हिमालय के जीवन की कृतार्थता मैंने मान ली होती। उस-उस समय मुझे जोजो सुविधाएं मिलीं वे सब मानो ईश्वर की योजना के अनुसार ही हो रहा है, ऐसा समझकर मैंने लोगों को पुराने ढंग में ही ढाला होता।
हिमालय में मैंने क्या-क्या देखा? जो देखा उसके साथ जो आनंद का अनुभव किया, उसकी बातें मैंने उस पुस्तक में लिखी हैं। वहां क्या साधना की, वह मुझे, भले थोड़े में, अलग पुस्तक में देना बाकी है। इसलिए 'स्वराज्य-संकल्प' की पूर्ति के लिए मैं वापस आया, इतना कहकर उसके बाद के जीवन की थोड़ी बातें यहां देना चाहता हूं।
उत्तर तरफ की मेरी उस साधना के बारे में मैंने कहीं थोड़ा कुछ लिखा है। आखिरी यात्रा नेपाल की थी। पाण्डव-काल से लेकर अबतक नेपाल का और तिब्बत का सम्बन्ध कैसा रहा, यह मैं जानना चाहता था। उस समय का इतिहास हमारे लोगों ने लिखकर नहीं रखा है, और पौराणिक काल की बातें हम जानते भी नहीं । नेपाल की तरफ की भाषा में और भूटान की भोट भाषा में जो साहित्य मिलता है उसका संशोधन होने के बाद शायद हमें बहुत-सी ऐतिहासिक तथा अन्य बातें यथार्थ रूप से जानने को मिलेंगी। और तब हम पुराने इतिहास पर नव-प्रकाश डाल सकेंगे। मैं नेपाल तो गया, किन्तु खोजरनाथ जा नहीं सका, उसकी ग्लानि मुझे अब भी है। मैं नहीं मानता कि आज मैं खोजरनाथ जाऊं तो वहां की पुरानी हकीकत अब मुझे मिल सकेगी।
मैंने नेपाल-यात्रा पूरी की तभी हिमालय का पर्व पूरा हुआ, ऐसा मैं मानता हूं। मैंने अपना मानस बदलकर सांस्कृतिक स्वराज्य का चिंतन शुरू किया और उस हेतु से रामकृष्ण मिशन में और शान्तिनिकेतन में कुछ समय बिताया। श्रीअरविन्द घोष के पास नहीं जा सका, क्योंकि वे गुप्तरीति से पांडिचेरी जाकर वहां स्थिर होने की तैयारी कर रहे थे। यदि मैं रामकृष्ण मिशन में दाखिल हुआ होता तो विधिवत् संन्यास ले लेता। तब तो स्त्री-पुत्रों को साथ लेकर रहने का सवाल ही नहीं उठता। रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष स्वामी ब्रह्मानन्द (पूर्वाश्रम के राखाल राजा) के साथ थोड़ा-सा सम्बन्ध ही हो पाया था। इसलिए मैंने मान लिया कि वे मुझको तुरन्त संन्यास की दीक्षा देंगे, किन्तु उन्होंने तीन साल उम्मीदवारी करने के बाद संन्यास देने की बात की। इसलिए मैं खूब यात्रा कर सका और मेरे विचारों में बहुत परिवर्तन हआ। इस परिवर्तन को लेकर मैं शान्तिनिकेतन गया।
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १३६