Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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देंगे और राजनैतिक हत्या करनेवाले लोगों को क्रूरता के साथ कुचल डालेंगे । तदुपरान्त सारे ही प्रकट जीवन को नष्ट करने के लिए सख्त कदम उठायेंगे। इससे अंग्रेजों के प्रति असंतोष बढ़ने के बदले, दंगा करनेवाले और अंग्रेजों को मार डालने वाले मुट्ठी भर लोगों के कारण सारे देश पर दमननीति फैलेगी और प्रजा में क्रांतिकारी देश-भक्तों के प्रति अरुचि फैलेगी। देश कार्य के लिए जनता प्रकट सहायता तो दे नहीं सकती किन्तु वह खानगी ढंग से देशभक्तों को पैसे खुशी से देती है, इस वातावरण का भी अंत हो जायेगा। लोग हमको नजदीक आने ही न दें, हमसे डरने लगें, ऐसा वायुमंडल खड़ा करके हमें क्या मिलने वाला है ?
सच तो हमें गुप्त रहकर लड़ाई की तैयारी करनी चाहिए। हम में से कई लोग कहते थे कि गुप्त काम के वास्ते पैसे एकत्र करने के लिए सरकारी खजाना लूटना चाहिए। लेकिन यदि हम ऐसा करेंगे तो हम जनता में अप्रिय हो जायेंगे। लोग हमारा हृदय से द्वेष करने लगेंगे। पुलिस में हमारे खिलाफ शिकायतें करेंगे। फिर लड़ाई का वायुमंडल हम कैसे तैयार कर पायेंगे ? यह थी मेरी दलील हमारे अंदर के मतभेद बढ़ते गये। जनता में विचार- प्रसार करने से पहले हमारी गुप्त संस्था में विचार-शुद्धि और निश्चित योजना तैयार करके उसको कार्यान्वित करने के पीछे ज्यादा शक्ति खर्च करनी चाहिए, ऐसा मुझे लगता था ।
जेल जीवन मोल लेना अथवा फांसी जाने को तैयार होना, इसके लिए भी तैयारी होनी चाहिए, साथसाथ आम जनता को अभयदान भी देना चाहिए, ऐसे-ऐसे विचार गुप्त मंडल के लोगों के सामने मैं रखता था । फिर नासिक के कलेक्टर जंक्सन की हत्या हुई। बिहार में और बंगाल में बम फूटे। देश में जो थोड़े गुप्त क्रान्तिका दल थे, वे प्रकट हो गये और हमें अनुभव हुआ कि हमारी तैयारी नहीं के बराबर है, जबकि अंग्रेजों की तैयारी, सोचा था उससे हजारगुना ज्यादा थी। अब क्या करना ? यह विचार मन को परेशान करने लगा । और देशी राज्य में रहकर भी कुछ करना शक्य नहीं है, ऐसा पूरा अनुभव होने के बाद और बड़ोदरा का राष्ट्रीय शिक्षा का हमारा काम भी सरकार की ओर से अशक्य हो जाने के बाद मैंने हिमालय का रास्ता लिया। कालेज में जाने से पहले, क्रांति के बारे में मेरे विचार कच्चे थे। समान विचार के लोगों के साथ विचार-विनियम करने का मौका मिला। विदेशियों की गुलामी कैसे सहन कर सके और मुक्त होने के प्रयत्नों में बार-बार हमें हार क्यों मिली। इस बात का चिन्तन हमारे लोग नहीं करते, ऐसी शिकायत मैं अनेक बार करता और फिर भी साथियों के मन पर जरूरी असर नहीं होता, यह भी मेरी उलझन मेरी बातों में शायद कुछ दोष होगा। मेरे विचार ही मुझे यहां पेश करने चाहिए। लेकिन यह आसान नहीं है । इसलिए अनुभव और उत्कट चिन्तन के फलस्वरूप उस समय के विचारों ने जो अन्तिम स्वरूप लिया, वही यहां पेश करूंगा । चिन्तन और अनुभव का क्रम दिखाने का मेरा तनिक भी आग्रह नहीं है ।
कालेज में दाखिल होने के बाद ही इतनी भव्य संस्कृति के वारिस हम
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हमारे देश में चार वर्णों की व्यवस्था को लेकर देश का रक्षण और देश की राज्य व्यवस्था क्षत्रिय वर्ण को ही सौंप दी गई है। परिणाम यह हुआ कि बाकी के लोग गफलत में ही रहे। रोटी-बेटी व्यवहार की मर्यादा के कारण हरएक समाज अलग ही है, ऐसी मान्यता लोकमानस में रूड़ हुई है। राजा हार जाये और विदेशी लोग यहां आकर राज करें तो पूरे समाज को इसका ज्यादा बुरा नहीं लगता था । विदेशी राजाओं की ओर से जब धार्मिक जुल्म होता था तभी जनता अकुलाती धार्मिक स्वतन्त्रता कायम रहते हुए राजद्वारी परतन्त्रता लोगों को खास चुभती नहीं थी । यदि ऐसा न होता तो मुट्ठी भर विदेशी लोग करोड़ों के राष्ट्र को पराजित नहीं कर सकते, और विदेशियों के राज्य यहां मजबूत भी नहीं होते ।
हमारे यहां धर्म-जीवन की शिक्षा उत्तम विकसित हुई थी और जनता में उसका प्रचार भी अच्छी तरह
१३६ / समन्वय के साधक