Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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स्वीकार कर लिया। साथ ही उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि व्यक्तीकरण की पूरी छूट रहनी चाहिए। आयो जकों ने इस बात को मान्य किया था। चलते समय काकासाहेब ने अपने भाषण की एक प्रति मुझे दी?
१९७७ में जब में भारत गया तो काकासाहेब से मिलने पुनः सन्निधि पहुंचा। इस अवसर पर एक ऐसी बात सामने आई, जिसके बारे मैंने सुन तो रखा था, पर विश्वास नहीं हुआ था। काकासाहेब ने कुछ क्षणों तक मुझे पहचाना ही नहीं ! सरोजबहन बहुत बेचैन हो गयीं और ऊंची आवाज में बोल उठीं, "ये अपने महातम सिंह हैं।" मैं मन ही मन मुस्करा रहा था। उस समय काकासाहेब के भुलक्कड़ स्वभाव के शिकार कितने ही लोगों की याद हो आई । स्व० रामधारी सिंह 'दिनकर' ने लिखा है, "काकासाहेब से इतनी बार मिल चका था कि इस बात का मुझे अन्देशा भी नहीं था कि वे मुझे कभी नहीं भी पहचानेंगे। पर यह अनहोनी बात एक बार हो ही गयी। तब मैं कविता लेकर काकासाहेब के पास बैठ गया और उनसे कहा, "मेरा नाम 'दिनकर' है और अपनी नवीन रचना आपको सुनाना चाहता हूं।"
आगे क्या हुआ, पाठक समझ सकते हैं। काकासाहब ने रसपूर्वक उनकी कुछ कविताएं सुनीं।
मैंने उस समय काकासाहेब को हाथ में विश्व मानचित्र लिये विचारों में निमग्न पाया ! लगा, संस्कृति का यह परिव्राजक शरीर से अशक्त होते हुए भी विचारों में विश्व-कल्याण की भावना से सतत जागरूक है। चला तो मन में अकथनीय स्फूर्ति थी। अन्तःकरण से यह उद्गार निकल ही पड़ा-काकासाहेब सच्चे अर्थों में पृथ्वीपुत्र हैं !
प्रतिभा के पुज विष्णु प्रभाकर 00 काकासाहेब ने कितना लिखा है यह उतना आश्चर्यजनक नहीं है जितना यह कि उन्होंने कितने विविध विषयों का अध्ययन किया है। भौतिक और आध्यात्मिक जगत् में कुछ भी तो ऐसा नहीं रह गया है, जिसको उन्होंने नये अर्थ देने की चेष्टा न की हो।
असंख्य रहस्यों को अन्तर में छिपाये उस अनन्त आकाश जैसा है हमारा वाङमय। उस सबका यथासम्भव अवगाहन करके काकासाहेब ने हमें दिखाना चाहा है कि कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका समाधान वहां न खोजा जा सके।
उनकी मातृभाषा मराठी है, लेकिन गुजराती में ऐसे लिखते हैं, जैसे वह उन्हें घुट्टी में मिली हो। हिन्दी का प्रसार-प्रचार करने में उन्होंने सारा जीवन खपा दिया और रवीन्द्र साहित्य की सारगर्भित व्याख्या करके उन्होंने प्रमाणित कर दिया कि कोई भी भाषा हो, मन होने पर वह अपनी हो रहती है।
वे क्रांतिकारी बनने घर से निकले, पर पहुंच गये महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शान्तिनिकेतन में। वहीं उनकी भेंट गांधीजी से हुई और वे सदा-सदा के लिए उनके हो गये। क्रांति, कविता और कर्म तीनों का अद्भुत समन्वय हुआ है उनमें । इसीलिए उनके अन्तर में सतत प्रज्वलित ज्योति आकाश के रहस्यों को ही उजागर नहीं करती, बल्कि निरन्तर कर्म की ओर भी प्रेरित करती है। उनकी प्रतिभा वायवी नहीं, रचनात्मक है। इसीलिए मार्ग-दर्शक बन जाती है।
वे जिस अधिकार से अध्यात्म की व्याख्या कर सकते हैं, उसी अधिकार से गणित, ज्योतिष का रहस्य
व्यक्तित्व : संस्मरण | ११३