Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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केवल अलगाव बढ़ाने का तंत्र प्रमाणित हो रहा है। हिन्दू धर्मावलम्बियों को समझाते हुए उन्होंने कहा था, "नदी आगे बढ़ते समय किसी टीले के पास पहुंचने पर दो भागों में बंट जाती है। किन्तु समतल स्थान पर पहुंचते ही पुनः एक धारा में परिणत हो जाती है।" स्पष्ट था कि काकासाहेब का ध्यान एक ऊंचे ध्येय पर केन्द्रित हो गया था, जो धर्म-धर्म के बीच भाषा व भाषा के बीच, वाद-वाद के बीच और देश-देश के बीच समन्वय की स्थापना करना चाहता है ।
एक रात हम निमंत्रित होकर अमरीकी राजदूत के यहां गये। उन्हें पता हो गया था कि हम दोनों निरामिष भोजी हैं। अतः हम लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था अलग मेज पर की गयी थी। काकासाहेब को यह अच्छा नहीं लगा और उन्होंने आमिष भोजियों के साथ बैठकर ही भोजन करने का आग्रह किया। उन्होंने कहा, "मांसाहार और शाकाहार का आहार-भेद रहेगा ही, रहना ही चाहिए, लेकिन 'मांसाहारी और शाकाहारी' एक-दूसरे के घर खाना खायं । एक-दूसरे के हाथ का पकाया हुआ खायं । धार्मिक त्योहारों में एक-दूसरे को बुलावें । धर्म-भेद होते हुए भी आत्मीयता कम न हो, इसके लिए पूरी-पूरी कोशिश होनी चाहिए।"
पांच साल गियाना में काम करने के पश्चात् जब मैं १९५२ में छः महीने की छुट्टी पर भारत गया तब काकासाहेब से मिलने सन्निधि, राजघाट ( नई दिल्ली ) गया । मेरे मन में बड़ी इच्छा थी कि मैं पूज्य विनोबा भावे से मिलकर उनके अनुभव प्राप्त करूं और उसका उपयोग अपने नये कार्य क्षेत्र सूरीनाम में करूं । काकासाहेब ने इसका समर्थन किया और जहां तक हो सके, विनोबा-साहित्य को देख जाने का परामर्श दिया । विनोबाजी उस समय भूदान की अहिंसक क्रांति का शंखनाद करते हुए देश में पैदल घूम रहे थे । उनका पता लगाकर और काकासाहेब से परिचय-पत्र प्राप्त कर मैंने दिल्ली से भटिंडा के लिए प्रस्थान किया । कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। लगभग ५ बजे थे। स्टेशन से बाहर आते ही मालूम हुआ कि बाबा अपनी टोली के साथ सिरसा की दिशा में में चल पड़े हैं। उसी दिशा का टिकट लेकर मैं रेलगाड़ी में चल पड़ा। अगले स्टेशन पर उतरते ही ज्ञात हुआ कि बाबा वहां आने वाले हैं। सूर्य की किरणों के साथ ही बाबा तथा उनकी टोली के लोग आते दिखाई पड़े। आगे बढ़कर मैंने पत्र दिया, जिसमें काकासाहेब ने मराठी में लिखा था, "श्री विनोबा, श्री महातम सिंह ना तुमसे कड़े पाठवीत आहें...।" बाबा ने पत्र पढ़कर प्रसन्न मुदा में कहा, "अज्ञात वास में भी तुमने हमें ढूंढ ही लिया ।" उस दिन और दूसरे दिन पद-यात्रा के समय बाबा ने काकासाहेब के प्रति जिस आत्मीय भावना को व्यक्त किया वह मुझे कभी नहीं भूलेगी। महात्मा गांधी के दो प्रधान आध्यात्मिक शिष्यों के बीच अनंत सौहार्द और आत्मीयता से मैं गद्गद हो गया।
हमेशा की तरह जब मैं १९६५ में भारत यात्रा पर गया तब प्रेरणा प्राप्त करने के निमित्त सन्निधिपहुंचा। प्रातः का समय था । सर्दियों के दिन थे । काकासाहेब सरोजबहन को 'मंगल प्रभात' के लिए लेख लिखवा रहे थे । नमस्कार कर कुर्सी पर बैठा ही था कि काकासाहेब ने कहा, "उतनी दूरी से बातचीत में आनंद नहीं आयेगा। पास आकर बैठो।" मैं उनके पलंग पर ही जाकर बैठ गया। सूरीनाम तथा वहां के लोगों से सम्बन्धित चर्चा चलती रही।
इस अवसर पर काकासाहेब ने बम्बई में आयोजित मुखरिष्ट कांग्रेस की, जिसका उद्घाटन रोमन कैथोलिक चर्च और समुदाय के सर्वोच्च अधिकारी पोप के हाथों हुआ था, चर्चा की। कुछ लोगों ने इस सम्मे
न के आन्तरिक उद्देश्य पर संदेह प्रकट किया था। उनका कहना था कि यह संगठन - गैर ख्रिस्ती धर्माबलम्बियों को मिटाने के लिए किया गया था और भारत जैसे सहिष्णु देश के लिए यह शोभा नहीं देता। इसलिए उस अवसर पर खिस्ती धर्म पर भारतीय जन मानस क्या सोचता- समझता है, इसके स्पष्टीकरण के लिए काकासाहेब से बी० बी० सी०के माध्यम से एक वक्तृता देने के लिए आग्रह किया गया। काकासाहेब ने सहर्ष
११२ / समन्वय के साधक