Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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१: मेरे माता-पिता
दक्षिण के हम सारस्वत ब्राह्मण । पश्चिम भारत में रहना हमने पसंद किया । हमारे पूर्वज कब यहां आकर बसे उसका इतिहास आज मिल नहीं सकता, और कहां से आये यह भी हम नहीं जानते।
कालेलकर, रांगणेकर अथवा नेरूरकर जैसे हमारे कुलनाम आज महत्त्व के नहीं हैं। स्थान को लेकर ये नाम दिये गए हैं। मैंने सुना था कि हमारा असली कुलनाम राजाध्यक्ष था। इस कुलनाम के सारस्वत परिवार आज भी पश्चिम भारत में मिलते हैं।
सामान्य रूप से दक्षिण भारत के ब्राह्मण शुद्ध शाकाहारी होते हैं। उत्तर के ब्राह्मणों को मांस खाने में सामान्य रूप से हरजा नहीं है, ऐसा कह सकते हैं। दक्षिण के सारस्वत, धर्म के रिवाज के अनुसार, मांस नहीं खाते, किन्तु मच्छी खाते हैं।
_आज की बात नहीं है, पुराने धार्मिक परिवारों के रिवाजों की बात है। अधिकतर सारस्वत समुद्र किनारे रहते हैं इसलिए मच्छियां खाते हैं। मच्छी तो समुद्र की सब्जी । यह खायी जा सकती है, ऐसा कहनेवाले धर्मनिष्ठ लोग मैंने देखे हैं । मच्छी खानेवाले और न खानेवाले एक ही जाति में रह नहीं सकते, उनकी अलग जाति होनी चाहिए, यह है दक्षिण की सामान्य मान्यता। लेकिन हम सारस्वतों ने इतना बड़ा आहारभेद होते हुए भी, दो न्यातें नहीं की। लड़की का ब्याह करते समय सहज तलाश की जाती है कि बेटी को तकलीफ तो सहन नहीं करनी पड़ेगी? जिसको मच्छी खानी नहीं है, उसपर खाने का अत्याचार नहीं होना चाहिए-यह है सर्वमान्य नियम । हमारी जाति की इस उदारता के कारण हम उदार मन के प्रगतिशील माने जाते हैं। हमारे कालेलकर परिवार में तीन-चार पीढ़ियों तक मत्स्याहार का नामोनिशान भी नहीं मिलेगा। इसलिए मैं तो आजन्म शुद्ध शाकाहारी ही रहा हूं।
गोवा के उत्तर में, सावंतबाडी राज्य में, 'कालेली' नाम का एक गांव है। वहां के हम रहनेवाले। इसलिए हमारा कुलनाम हो गया कालेलकर।
मेरे पिताश्री छुटपन में गरीबी का पूरा अनुभव लेकर बेलगाम आये, थोड़ी अंग्रेजी सीख ली। (उन दिनों मैट्रिक परीक्षा भी नहीं थी।) और कलादगी (बिजापुर) की तरफ लश्करी नौकरी में शामिल हुए। उसी नौकरी में यदि वे टिके होते तो सूबेदार के पद तक पहुंचे होते और हम सबको लश्करी वायुमंडल में रहकर उस तरह की जीवन-पद्धति अपनाने की शायद इच्छा हुई होती, ऐसा विचार बहुत बार मन में आया था। फौज के गोरे अमलदार मेरे पिताश्री की अंग्रेजी पर खुश हुए और उनको मुल्की विभाग में नौकरी दिलवायी। पिताश्री कलेक्टर के मुख्य हिसाब-नवीस बने । उनकी नौकरी के अनुसंधान में हम सातारा, बेलगाम, कारवार, धारवाड़ इत्यादि जिलों में रह सके।
तदुपरान्त जिन देशी राज्यों के राजा बालिग नहीं होते, उन राज्यों की व्यवस्था ब्रिटिश देखभाल में चलती थी। फलस्वरूप व्यवस्था संतोषकारक है या नहीं, इसकी तलाश करके अंग्रेज सरकार को रिपोर्ट देने के लिए कभी-कभी मेरे पिताजी की नियुक्ति होती थी। मैं तो अपनी विद्याभ्यास की हानि उठाकर भी प्रवास का लाभ लेने का आग्रही था; इसलिए पिताश्री के साथ सावंतवाड़ी, जत, रामदुर्ग, मिरज, मुबोल, सावनर
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १२३