Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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इत्यादि देशी राज्यों की राजधानियों में जाकर वहां की सरकार के आदरणीय अतिथि होकर रहने का मौका हमें मिला तब देशी राज्य कैसे चलते हैं, जनता की भावना कैसी होती है और अंग्रेज अपनी नीति किस ढंग से चलाते हैं, इसकी सविस्तार कल्पना मुझे सहज मिली।
मेरी मां थी भिसे परिवार की उन लोगों ने भी किसी जमींदार के यहां नौकरी करके कमाई में से खेत खरीदे और वे गांव के साहूकार बनने जा रहे थे मेरा बाल्यकाल सतारा में और बेलगाम की तरफ सांगली राज्य के शाहपुर इन दो शहरों में बीता। शाहपुर में हमारी जाति के लोग साहूकारी करते या व्यापार करते । अंग्रेजी सीखकर सरकारी नौकरी में जानेवाले शायद ही कोई निकलते। इसलिए जाति में हमारी प्रतिष्ठा बहुत अच्छी थी। मेरे पिताश्री अच्छे धर्मनिष्ठ और ईमानदारी के आग्रही थे उन्हीं संस्कारों
हुआ मैं संस्कृत मंत्र कंठ करके छुटपन से ही भगवान की पूजा करने में सहयोग देने लगा । पिताजी के साथ अनेक यात्राएं भी मैंने कीं । फलस्वरूप रूढ़िनिष्ठ धार्मिक परंपरा के संस्कार मुझे उत्तम मिले हुए थे । साथ-साथ संत-साहित्य पढ़कर और पंढरपुर, गोकर्ण जैसे महत्व के तीथों में जाकर मैंने अपनी धार्मिकता अच्छी तरह से बढ़ाई थी। धर्मनिष्ठा के पूरे-पूरे लाभ भी मुझे मिले थे।
आगे चलकर कॉलिज में प्रिन्सिपल रेन्गलर परांजपे के प्रभाव में आकर में बुद्धिवादी बना उस विषय का अंग्रेजी साहित्य पढ़कर भगवान पर की मेरी श्रद्धा हिल गयी। फिर भी मेरे चारित्र्य पर बुद्धिवाद का अच्छा ही प्रभाव हुआ । सत्यनिष्ठा, न्यायनिष्ठा और समाज-सुधार का मैं आग्रही बना ।
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छत्रपति शिवाजी के समय से ही महाराष्ट्र में उत्कट स्वराज्य भक्ति चली आती थी। दो सौ, तीन सौ साल के उस उज्ज्वल इतिहास के प्रभाव से अंग्रेजों के प्रति मेरे पिताजी की जो 'स्वामिनिष्ठा' थी, उसको मैंने तिलांजलि दे दी और कॉलेज के दिनों में ही मैं क्रान्तिकारी बन गया इस हद तक कि मेरे जन्म के वर्ष में ही जिसका जन्म हुआ, उस इन्डियन नेशनल कांग्रेस जैसी संस्था का भी मैं विरोधी बन गया; क्योंकि वह तो 'ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर रहकर प्रजाकीय अधिकार प्राप्त करने का प्रयत्न करनेवाली एक कमजोर संस्था' है, ऐसा मेरा सकारण, ख्याल था। गांधीजी भारत आये। नरमदल के गोखलेजी को अपने राजनैतिक नेता के रूप में स्वीकार कर, गांधीजी ने कांग्रेस में प्रवेश किया। किन्तु देखते-ही-देखते जब उन्होंने उसी
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कांग्रेस को पूर्ण स्वराज्य के आदर्श को कबूल करनेवाली एक तेजस्वी संस्था बना में मददरूप होने के लिए मैं कांग्रेस में दाखिल हुआ। फिर भी कांग्रेस चलानेवाले दिल से शामिल न हो सका।
यह है गांधी पूर्वकाल का मेरा मुख्य जीवन-वृत्तांत |
गांधी पूर्वकाल में अपने जीवन के मुख्य दो भाग मैं मानता हूं। पहला भाग तो राजनैतिक, क्रांतिकारी आंदोलनों में शामिल होकर गुप्त संस्था द्वारा क्रांति की तैयारी करनेवाला बना संसार सुधार के लिए लोकमत तैयार करने के प्रयत्न को भी इसीमें मैं मान लेता हूं और दूसरा भाग है मेरे आध्यात्मिक विकास का । इसमें छुटपन की भोली, कर्मकाण्डी पूजा, त्योहार, उत्सव, उपवास, यात्राएं वगैरा सब आ जाता है । उसके बाद आया बुद्धिवाद का काल वह काल था चारिव्य का आग्रह रखते हुए भी धर्मभावना का विरोध करनेवाला और उसके बाद फिर से वेदांत आधारित धर्मनिष्ठा से प्रारंभ करके, हिमालय में खूब घूमकर धर्मचिंतन ध्यान आदि साधना के द्वारा प्राप्त किया हुआ धर्मानुभाव और सारे जीवन पर छाया हुआ उसका आध्यात्मिक प्रभाव । इस विभाग में स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, रामकृष्ण परमहंस, बाबू भगवानदास, अरविंद घोष और रवीन्द्रनाथ ठाकुर आदि धर्मप्रधान, स्वातंत्र्य - प्रेमी सांस्कृतिक नेताओं के विचार और जीवन का प्रभाव मुख्य है ।
१२४ / समन्वय के साधक
दिया, तब उनके उस प्रयत्न गांधी- भक्तों में भी मैं पूरे