Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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बारे में अपने विचार काकी ने गांधीजी को खुले दिल से बतलाए। लेकिन जब उनकी समझ में आया कि अस्पृश्यता को मानना ही एक पाप है तब उन्होंने लालजी नामक एक हरिजन बालक को गोद लिया और अपने दोनों बेटों के साथ उसे भी बड़े प्यार से पाला । वे जिस आदर्श में विश्वास करती थीं, सबसे पहले उसे कार्यान्वित करती थीं।
काकी प्रकाण्ड विद्वान पति की पत्नी थीं। फिर भी धर्म के प्रति उनकी असीम श्रद्धा थी। उन्होंने अपने दोनों बच्चों को धर्म का ज्ञान मिले, इसलिए पूरी कोशिश की। प्रभु के प्रति उन्हें विश्वास दिलाया। काकी को जीवन में अनेकविध कठिन परिस्थितियों का और प्रचंड झंझावातों का सामना करना पड़ा। पति के परिव्राजक जीवन के दौरान भी वे विचलित नहीं हुई। परिस्थिति का सामना बहादुरी से करती रहीं और अपने बच्चों को धर्म और देशप्रेम के उन्नत संस्कार देती रहीं। काकासाहेब जैसे अत्यंत बुद्धिशाली विद्वान को भी काकी की भक्ति के सामने झुकना पड़ता था। इसके बारे में महादेवभाई देसाई कहते हैं कि किसी धार्मिक त्योहार के दिन तो काकासाहेब जो काकी कहती थीं वही करते थे। धर्म के क्षेत्र में काकी का अबाधित अधिकार रहता
था।
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काकी एक महान सती स्त्री थीं। उनकी पतिनिष्ठा अद्भुत थी। फिर भी पति के साथ विचारों की भिन्नता के कारण कभी-कभी बहस होती रहती थी। काकासाहेब का आग्रह था कि जबतक दोनों एक-दूसरे को पूरी तरह से समझ न सकें, तबतक उन्हें अलग रहना चाहिए। काकी ने पति की इच्छा शिरोधार्य की और अपने वतन बेलगांव लौट आई। उन्होंने इसके बारे में अपने मन की भावना कभी प्रकट नहीं की। पति के प्रति रोष तो था ही नहीं। फिर से वही भक्ति और उग्र तपश्चर्या शुरू कर दी, जिससे उनके पति उन्हें पूर्ण रूप से समझ सकें। फिर से पतिविमुख होने से उन्होंने तीव्र वेदना का अनुभव किया। पहली बार छोटे-छोटे दो अत्यंत प्रिय बेटे साथ में थे, अब वे बड़े हो गये थे । बड़ा पुत्र कालेज में पड़ता था, जबकि छोटा बेटा साबरमती आश्रम में पढ़ाई करता था। इस तरह से दोनों बेटे और पति काकी से दूर थे और जो साथ में रहते थे, वे उन्हें समझ नहीं पाते थे। वे क्यों बेलगांव आई हैं, उसके बारे में उन्होंने अपने माता-पिता को भी कभी कुछ बताना नहीं चाहा। उनके स्वास्थ्य पर इस सबका बहुत गहरा असर हुआ। उनका शरीर कृश हो गया। फिर भी शरीर के बारे में उन्होंने किसी को कुछ नहीं बताया। राजरोग के कीटाणु ने उन पर हमला किया। धीरे-धीरे राजरोग का उनपर संपूर्ण अधिकार हो गया। इस स्थिति में उन्होंने तीन साल व्यतीत किये। आखिर में जब उन्हें अनुभव हुआ कि अब शरीर ज्यादा नहीं चल सकेगा तब उन्होंने गांधीजी को एक पत्र लिखकर आश्रम में ठहरने देने की अनुमति मांगी। अनुमति मिलते ही अपने बड़े पुत्र सतीश के साथ वे आश्रम में आयीं। काकासाहेब ने उनसे बातचीत की तो वे अत्यंत प्रसन्न हो उठीं। कहने लगीं, “काकासाहेब ने मुझसे बात की।" पतिव्रता नारी को अपने पति के दर्शन और स्नेह के अतिरिक्त और कुछ चाहिए भी क्या ? उनका चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा। जब किसीने उनसे अपने दर्द की बात कही तो वे कहने लगीं, 'मेरी व्याधि आयी तो भले ही आयी, अब मैं जीने वाली नहीं हैं। मुझे जीवन चाहिए भी नहीं। पर मेरा सौभाग्य कायम रहा।" और उसी शाम को उनकी आत्मा ने पति के सान्निध्य में गांधीजी के आश्रम में ही स्थूल देह को त्याग दिया।
काकी ने काकासाहेब को महानता दी ! और अपने सौभाग्य के लिए उनके राजरोग को अपने में ले लिया, और उन्हें उत्तम आरोग्य प्रदान किया। उन्हें दीर्घ आयुष्य की भेंट देकर वे स्वयं चल बसीं।
काकी आज हमारे बीच नहीं हैं। उनकी मूक सेवा, स्नेह, त्याग और तपश्चर्या आज भी इतिहास के पृष्ठों पर अंकित हैं । बलिदान और स्वार्पण के पीछे छिपी हुई महानता का दूसरा नाम है भारतीय नारी।
१०८ / समन्वय के साधक