Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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इन कथाओं का योगदान बेजोड़ है। इसीलिए ये बार-बार गाई और सुनी जाती हैं। ऐसी लोकहृदय की पसन्द की गई कथाओं में 'गजेन्द्र-मोक्ष' का स्थान अनोखा है । अहंकार, मत्सर और क्रोध मनुष्य को गिराते हैं, इतना ही नहीं, उसे पशु बनाते हैं । और उस स्थिति में लज्जा से अपना रास्ता सुधारने के बदले प्राणी उसमें ही मस्त रहता है और पतन द्वारा नीचे गिरने का प्रयत्न करता है। ऐसा दिखाकर मनुष्य की पाप-शक्ति कितनी अनहद है, यह बात लोकमानस पर अंकित करने का प्रयत्न करके बाद में ऐसी अधमाधम दशा में से भी उबारने वाला एक पाप-पुंज हरि बैठा हुआ है। मनुष्य के पाप करने की शक्ति से अधिक है उद्धार करने की शक्ति और इसलिए अन्त में कमजोर और दुष्ट, गाफिल, क्रूर सभी का उद्धार करनेवाला है, ऐसा अमर आश्वासन देनेवाली यह कथा जन-हृदय चिन्तामणि क्यों न लगे!
"द्रौपदी ने अपनी साड़ी की चुन्नट को हाथ से जब छोड़ दिया, तब श्रीकृष्ण पर के विश्वास की पराकाष्ठा थी। तभी भगवान दौड़कर आये, फिर कुछ करना बाकी रहा ही नहीं।
"और छः वर्ष का ध्रुव कौन-सी साधना करने गया था? बाल प्रहलाद ने तितिक्षा के पाठ किसके पास से लिये थे कि पिता के त्रास के सामने अडिग और महावीर बनकर टिक सका? ईश्वर स्मरण—सिर्फ ईश्वर का सच्चा स्मरण कैसी भी स्थिति को पार करने के लिए समर्थ है।
"हारी हुई दुनिया को 'गजेन्द्र-मोक्ष' की कथा में से यह तारक कथा मिल गई। इसीलिए पुराण-काल से आज तक इतनी लोकप्रिय बनी हुई है।
"टग ऑफ वार' के लिए रस्सी 'खेंच' जैसा अरसिक शब्द रद्द करके मैंने जब 'गज-ग्राह' यह नया शब्द गुजराती में चलाया तब स्वप्न में भी ख्याल नहीं था कि दुनिया भर के 'गज-ग्राहों' का रहस्य समझाने वाली सुन्दर कथा का यह गुजराती रूप मुझे पढ़ने को मिलेगा। सचमुच चिमनभाई ने गुजराती भाषा को यह सुन्दर अलंकार पहनाया है। मुझे विश्वास है कि गुजराती बोलने वाले इसे केवल कागज पर न रहने देकर अथवा मान अभ्यास के लिए हाथ में न लेकर हजारों-लाखों कण्ठों में धारण करेंगे।"
यहां काकासाहेब की विशिष्ट और प्रेरणादायक शक्ति का उल्लेख करना आवश्यक है। वह चिरप्रवासी रहे हैं। विश्वयात्री बने हैं, और शिक्षा-शास्त्री तो सौ फीसदी हैं ही, समर्थ अध्यापक हैं, लिपि-निष्णात हैं, शब्दों को गढ़नेवाले हैं, कला और सौंदर्य को परखनेवाले हैं। और बहुत से गुण हैं। एक जगह वह कहते हैं, "अगर विश्वास हो जाय कि पिरामिड या ताजमहल के सृजन के पीछे गरीबों की हाय थी तो भव्य-कृतियों के लिए अपना आकर्षण उतर जाना चाहिए । कलाकार के बारे में यही नैतिक दृष्टि रखनी चाहिए।" काकासाहेब एक चलते-फिरते शब्द-कोश हैं। इसके कुछ रसिक उदाहरण उनके शब्दों में देता हूं, "आश्रम की शाला में अंग्रेजी शब्द न चलाने का आग्रह हम सबको चिपका । खेल में 'आउट' शब्द काम आता था। महाराष्ट्र में उसके लिए 'मारा', 'मर गया' ऐसे शब्द चलते, वे हमें पसन्द नहीं आये। इसलिए हमने चलाया 'बाद्ध' हो गया। यह सबको पसन्द आया। 'लम्बी कूद' और 'ऊंची कूद' इन दो शब्दों ने भारत से श्रीलंका तक लम्बी छलांग मारी। 'लांग जम्प' के लिए हमने चलाया 'हनुमान कुद', तो फिर 'हाई जम्प' के लिए भी ऐसा शब्द होना चाहिए।"
काकासाहेब ने इस शब्द के लिए लम्बी कहानी सुनाई, जिसमें सब बन्दर मित्रों के बीच अंगद ने सबसे अंची छलांग लगाई थी, इसलिए 'हाई जम्प' के लिए नाम दिया 'अंगद कूद' । नये-नये शब्द गढ़ने में वे निष्णांत हैं. जैसे कुमार मन्दिर, विनय मन्दिर, विनीत स्नातक, ध्यानमन्त्र, महामान ।
१९७३ में कच्छ के मित्रों ने गांधीजी के कुछ कार्यक्रम रखे। इसलिए मैं कच्छ गया था। उन दिनों एक दिवंगत लोकसेवक की याद में सभारंभ हुई, जिसमें काकासाहेब भी पधारे। दूसरे दिन भंज में हम फिर से
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