Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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एक अविस्मरणीय प्रसंग अनसूया बजाज
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मैं अनेक के सहवास में आई, उनकी प्रेम-भाजन भी रही, ऐसा कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मेरे अपने पिता ऋषितुल्य थे। पुराना उदाहरण देना हो तो जनकराजा जैसे थे। उनका जीवन सब तरह से विरक्त था। वे पिता तो थे, लेकिन मेरी भावना गुरु की ही अधिक रहती। १६३५ में पू० काकासाहेब का परिचय-संबंधसहवास सभी बातें एक साथ हुई। कैसे क्या घटना हुई, याद नहीं, लेकिन उनकी ओर एकदम आकर्षित हुई। इतना ही नहीं, उनके लिए मेरे मन में पिता का स्थान हो गया।
वह वर्धा से ३ मील पर बोरगांव रहते थे। मैं रोज जाती। उनके साथ दक्षिण का पूरा प्रवास किया। बंगाल-आसाम गई। मुझे उनकी सभी बातें अच्छी लगतीं। वह अत्यंत स्नेह करते। उनके पास बैठती। वे सहज में नई-नई बातें बताते रहते । फिर मेरी शादी हुई। संबंध बढ़ता ही गया। बच्चे हुए, काकासाहेब काकावाड़ी रहने आ गये। रोज सुबह-शाम घूमने जाना। उनका आना सहज बात हो गई। पत्रों का आदान-प्रदान भी होता रहा।
शादी के बाद उनके साथ राष्ट्रभाषा प्रचार के शिष्टमण्डल में मैं भी साथ थी। सारा दक्षिण घूमतेघूमते कन्याकुमारी पहुंचे। समुद्रस्नान करने को बहुत उतावली हो रही थी। पहले तो विवेकानंद शिला के पास लोहे की जंजीरबंधे पानी में नहाना हुआ। लेकिन वहां समुद्र अपनापन क्या व्यक्त कर सकता था? मैंने काकासाहेब से शिकायत की कि यह क्या नहाना ? यह तो नदी-स्नान हुआ। तब हम दोनों खुले समुद्र में नहाने गये। पता नहीं, काकासाहेब को कैसे क्या सूझा उधर जाते समय बिस्तर की डोरी साथ ले ली। साथ ही नहीं ली वहीं से मेरे बायें हाथ में कसकर बांध दी और अपने हाथ में बांध ली। समुद्र-किनारे जाकर खड़े हो गये। मैं समुद्र-दर्शन में खोई थी। इतने में ऐसी भयंकर लहर आई कि मेरे और काकासाहेब के सिर पर से होके गई
और हम दोनों को काफी अंदर बहा ले गयी। क्षणभर हम अपनी-अपनी जगह संभलते रहे। इतने में रेत जोरों से आया। पहले खारा पानी आंख-मुंह में चला गया। फिर रेत से भर गये। मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आया कि एक क्षण में यह क्या हो गया। समुद्र देखने तथा समुद्र में स्नान करने का यह पहला ही अवसर था। काकासाहेब कहीं दीखे नहीं। लेकिन रस्सी बंधी थी और मुझे खींचा जा रहा था, इतना समझ में आया। मैं
जमीन की तरफ गई, ताकि कुछ संभलं । काकासाहेब को देखें। तभी काकासाहेब चिल्लाये। कितना आनंद हुआ, कह नहीं सकती। समुद्र के इतने वेग में मुझे खीचते-खींचते उनके दोनों हाथ लाल-सुर्ख हो गये थे। मेरा हाथ रस्सी से बंधा कटने जैसा हो गया था। भगवान की पूर्व योजना ही कहनी चाहिए कि काकासाहेब को यह सब सूझा, वरना क्या होता ? काकासाहेब कहने लगे, "बहुत भीषण प्रसंग था। रस्सी मेरे हाथ से छूट जाती तो क्या होता? तुम तो जाती ही, मैं भी तुम्हारे साथ आता !" मेरे मन में विचार जाया कि भगवान को धन्यवाद देना चाहिए। ऐसा कुछ हो जाता तो मेरी कितनी मूर्खता कहलाती। मेरा तो क्या, लेकिन काकासाहेब का जीवन अत्यन्त मूल्यवान था। इस प्रसंग को मैं कभी नहीं भूल सकती।
___काकासाहेब ९४ साल पूरे करके :६५वें वर्ष में पदार्पण कर रहे हैं। कितनी खुशी की बात है ! भगवान उनको शतजीवी करें। उन्हें स्नेह-भक्ति-पूर्वक अपने हृदयपुष्प अर्पण करती हूं।
व्यक्तित्व : संस्मरण | 88