Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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पीठ की स्थापना की। उस विद्यापीठ में प्रथम अध्यापक होकर और अन्त में कुलपति होकर काकासाहेब ने सेवा की। बाद में १९२० में जब गांधीजी जेल में थे, उनके दोनों साप्ताहिक पत्त्रों का संपादन काकासाहेब ने संभाला । यह कार्य करते-करते ही उन्हें जेल जाना पड़ा।
साहेब की भाषा गुजराती न होते हुए भी उन्होंने गुजराती भाषा पर इतना प्रभुत्व पा लिया है कि गुजराती के जो सर्वमान्य प्रतिष्ठित लेखक हैं, उनकी पक्ति में काकासाहेब का उच्चस्थान है । उनकी लिखी हुई अनेक पुस्तकों को पुरस्कार भी मिले हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या डेढ़ सौ से अधिक होगी । अनेक भाषाओं पर उनका अच्छा अधिकार है । बंगला साहित्य के तो वे उत्कृष्ट विवेचक हैं । हिन्दीहिन्दुस्तानी भाषा के वे प्रखर प्रचारक और समर्थक हैं। इसके अलावा और भी कई भाषाएं वे जानते हैं ।
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के आन्दोलन में काकासाहेब को पांच बार कारावास की सजा हुई । उसमें एक वर्ष हिंडलगा (बेलगाम) जेल में मैं उनके साथ था । काकासाहेब के सहवास में मुझे जेल की कोई यातना अनुभव नहीं हुई, किन्तु काकासाहेब के साथ रहना और चलना दोनों कठिन था । काकासाहेब के साथ टिकना आसान नहीं । उनके सहवास के मीठे फल आज मुझे ज्यादा मीठे लगते हैं । मेरे जीवन में दो-तीन बार काकासाहेब ने मुझे सम्भाल लिया, एक वर्ष उनके निकट सान्निध्य में रहने से कालेज शिक्षण के अभाव की पूर्ति हो गयी। अपने जीवन में मैंने जिन-जिन आन्दोलनों को हाथ में लिया, स्वतन्त्र रूप से चलाया । काकासाहेब ने मदद भी की और मार्ग-दर्शन भी किया। यह सब मैंने अपनी पुस्तक ( सप्रेम वन्देमातरम् ) में किया है । काकासाहेब बहुभाषी हैं, विद्वान हैं, तत्वज्ञ हैं । उन्होंने विपुल उत्कृष्ट साहित्य समाज को दिया है । अनेक संस्थाएं चलाई हैं । गांधी तत्वज्ञान के समर्थ विवेचक हैं और राष्ट्रभाषा के समर्थक हैं । ये सब बातें सर्वविदित हैं और अनेक समर्थ चिन्तकों और विचारकों ने इन सबके बारे में काफी लिखा है । किन्तु काकासाहेब की ये विशेषताएं पर्याप्त नही हैं। उनके जीवन की विशिष्टता तो अलग ही है ।
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राष्ट्र-निर्माता काकासाहेब ने युवक-युवतियों को देशभक्त बनाने की कला को जीवन में शुरू से ही प्रधानता दी है । उनके सम्पर्क में आये और उनके सहवास में कुछ समय रहे हुए तरुण आजीवन राष्ट्रभक्त होकर ही निकले हैं। ऐसे कितने ही युवक-युवतियां राष्ट्र के कार्य में लगा दिये हैं। मुझे गर्व है कि उनमें से एक मैं हूं ! काकासाहेब के प्रत्यक्ष सम्पर्क और सहवास में आये हुए कई विचारकों ने शिष्यों ने, अन्तेवासियों ने स्वयं बहुत-सी पुस्तक लिखी हैं। काकासाहेब का साहित्य बुद्धि के साथ-साथ अन्तःकरण से भी समझ लेना चाहिए । आचरण की जुगाली के बिना वह पच नहीं सकता और वह उपयोगी भी नहीं हो सकता। उनके साहित्य की भाषा भी बराबर समझ लेनी चाहिए । काकासाहेब केवल भाषा- कोविद ही नहीं हैं, बल्कि नये-नये शब्दों के बनाने की तो मानो टकसाल ही हैं। भारत के श्रेष्ठ-शिक्षण- कोविदों में काकासाहेब का नाम बहुत ऊंचा है । उनकी अनेक रचनाओं के कारण 'चिन्तक' तो उनसे परिचित हैं ही प्रथम कोटि के साहित्यिक की हैसियत से प्रतिष्ठित साहित्यकार भी उन्हें पहचानते हैं। तीन पीढ़ियों से काकासाहेब निष्ठावान राष्ट्रसेवक तो माने ही गये हैं । वह केवल तत्वज्ञ हैं, इतना ही नहीं, किन्तु ऐसे संस्कार औरों को भी सहजता से देते हैं, ऐसा कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
आध्यात्मिक मार्ग पर काकासाहेब ने बहुत दूर की मंजिल तय की है । आध्यात्मिकता की चरम सी तक वे पहुंचे हैं । मोक्ष अथवा मुक्ति को एक साधन मानने का विचार उन्होंने पहले अपने जीवन में उतारा, 1 , फिर अपने साहित्य में उसका प्रतिवादन किया । इसलिए उनका साहित्य रोचक बोधक बना । ब्रह्मविद्या अथवा अध्यात्मविद्या से अधिक महत्व वह धार्मिकता को देते हैं। केवल आत्मा-परमात्मा को ही वे जीवन का सर्वस्व नहीं मानते । आत्मदर्शन के सिवा जीवन-दर्शन अपूर्ण, निःसत्व और निःसार है। यह बात उनको मान्य होते
व्यक्तित्व : संस्मरण / ६७