Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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श्रद्धेय काकासाहेब के नाम का सर्वप्रथम परिचय बचपन में मेरी माताजी के द्वारा ही हुआ। अकसर मेरी माताजी उनके बारे में कुछ-न-कुछ बातें किया करती थीं। एक बार पुस्तकालय से मेरी माताजी उनकी 'स्मरण-यात्रा' पुस्तक ले आयीं । मैंने भी वह पुस्तक पढ़ी। मेरा बालमानस काकासाहेब को एक बालरूप में देखने लगा, कल्पना करने लगा। काकासाहेब के और मेरे विचारों में मैंने एकता पाई, और उनसे मिलने की मेरी प्रबल इच्छा हुई। मेरी माताजी भी यह जानकर बहुत खुश हुईं।
एक बार बेलगांव में माता-पिता के साथ, काकासाहेब के घर जाने का अवसर मिला। मैं बहुत प्रसन्न थी। काकासाहेब से मुलाकात होगी, खूब बातें करेंगे, मैंने सोचा; लेकिन अफसोस ! वह घर पर नहीं थे, इसलिए भेंट नहीं हुई।
इसके बाद कई साल बीत गये। भारत आजाद होने के बाद, मैंने कॉलिज की पढ़ाई शुरू कर दी थी। काकासाहेब की पुस्तक 'हिमालय की यात्रा' हमारे पाठ्यक्रम में थी। जैसे-जैसे मैं पुस्तक पढ़ती गयी, मुझे ऐसा महसूस होने लगा कि काकासाहेब तो मेरे अपने ही हैं। अरे काका क्या, मेरे पिताजी ही हैं ! मेरी ही तरह उन्हें प्रकृति से प्यार है। मेरी ही तरह हर पेड़, पर्वत, नदी, पक्षी, झरना, बादल आदि से बातें करते हैं । विशेष बात तो यह है कि मेरी ही तरह हिमालय के प्रति आकर्षित हैं। पुस्तक पढ़ते-पढ़ते कई स्थान पर तो मुझे ऐसा लगा कि मैं उनके साथ हिमालय में घूम रही हैं। बस, उसी समय से, अपनी ओर से मैं उनकी मानसपुत्री बन चुकी थी।
बाल्यावस्था से ही मैं हिमालय के लिए पागल हूं। हिमालय के जंगलों में अकेले घूमना, हिमशिखरों को घंटों तक अपलक देखते रहना, गंगा के पवित्र जल में देर तक स्नान करके मुक्त आनंद पाना, चीड़ और देवदार के ऊंचे वृक्षों को देखते रहना, यह सब बचपन से लेकर आज तक मुझे बेहद पसंद है। हिमालय के प्रति जो मेरा असीम प्रेम है, वही मैंने काकासाहेब में और उनकी पुस्तक में पाया।
___ आखिर एक दिन भगवान ने मेरी प्रार्थना सुनी। अहमदाबाद में, श्री उमाशंकर भाई के घर पर २८ जनवरी, १९६८ को काकासाहेब से मेरी मुलाकात हुई। श्रद्धा से जब मैं उनके चरणों में झुकी तो मुझे ऐसा लगा, मैं अपने हिमालय के पास ही पहुंच गयी हैं। जीवन की वह एक धन्य घडी थी। आज भी जब मैं उस प्रसंग का स्मरण करती हूं तो मुझे वह उतना ही ताज़ा लगता है, और मैं आनंद-विभोर हो जाती हूं। मैंने सोचा, मेरा जीवन धन्य हुआ। जीवन की एक प्रबल इच्छा पूर्ण हुई। इस जीवन में काका के साथ मेरा घनिष्ठ संबंध होगा, इसकी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी, क्योंकि हम दोनों का हिमालय के प्रति अनुराग एक समान होते हुए भी-कहां उनका असीम ज्ञान और कहां मैं ? यह सब मेरा मन सोचता था, लेकिन आत्मा की बात कुछ और थी!
मैंने तो काकासाहेब में हिमालय के दर्शन किये थे। हिमालय तो है अशरण शरण। जो उसके पास जाता है, उसे आश्रय देता ही है। भला, काकासाहेब मुझे कैसे छोड़ देते? प्रथम भेंट में ही उन्होंने मुझसे कहा, "जब जी चाहे, तब मेरे पास दिल्ली जरूर आना, जितने दिन रहना हो रहना, कभी संकोच मत करना । तुम्हारा ही घर है।" यह सुनकर मैं फूली नहीं समाई।
बस, तब से लेकर आज तक मैं काकासाहेब के पास अकसर जाती हूं। जब मिलते हैं तब हिमालय और गंगा के बारे में तो बातें होती ही हैं, लेकिन इसके अतिरिक्त वेद, उपनिषद, गीता आदि पर भी चर्चा होती है। कभी-कभी विनोद भी होता रहता है।
मैं काकासाहेब से अहमदाबाद और बम्बई में भी मिली हूं, लेकिन जब मैं उनसे एक बार हिमालय (मसूरी) में मिली तो मैंने काकासाहेव के चेहरे पर कुछ अनोखा आनंद और तेज पाया। उसी समय उन्होंने
८८ / समन्वय के साधक