Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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देखने योग्य दृश्य था । कई बार उनमें से अधिकांश व्यक्ति समझ भी नहीं पाते थे कि क्या कहा जा रहा है, किन्तु उन सबके लिए काकासाहेब 'बातु अमुंगु' ( भगवान के सन्देशवाहक ) थे। उन दिनों अफ्रीकियों ने कभी ऐसे मनुष्य देखे ही नहीं थे, इसलिए वे सब उन पर मुग्ध थे । भारतीय और अफ्रीकी लोग काकासाहेब पूर्ण प्रभावित हो जायं, यह समझा जा सकता है, किन्तु यूरोपीय लोग भी, जो विजेता थे, शासक थे, वे पहले अच्छा से, किन्तु बाद में अपनत्व और आनन्द - उत्साह के साथ उनकी सभा में आते रहे । सब-के-सब सर बांकले (पूर्व अफ्रीका के सुप्रीम कोर्ट के अध्यक्ष ) से लेकर नाकुरू, या किसुमु के छोटे से किसान व्यापारी तक आने लगे और अपने घरों में काकासाहेब को आमंत्रित करके अपने मित्रों के साथ उनके ज्ञान का रसास्वादन करने को उत्सुक थे । काकासाहेब सबके यहां जाते उनके साथ कविता की, कला की, संगीत की, जीवन की और सौन्दर्य की बातें करते । उनका उद्देश्य भारतीय संस्कृति का प्रचार करना ही नहीं था । वह तो मानवीय संस्कृति के पोषक थे । विश्वभर के युगों की समस्त संस्कृति उनकी विरासत थी। ऐसी विशाल दृष्टि का विरोध कौन कर सकता है, विशेषकर जब इतने सादे और ज्वलन्त शब्दों में समझाया जाय । १६५० में भारत-अफ्रीका के सम्बन्धों का श्रीगणेश हो ही रहा था। किसी और से अधिक काकासाहेब ने ही इस विकास - काल को नया और मार्मिक आयाम दिया ।
उनके प्रति मेरा निजी ऋण अतुलनीय है, क्योंकि उनकी दी हुई आधार- शिला पर काम करना मेरे लिए बहुत आसान होगा ।
विदेश सेवा के २७ वर्षों के दरम्यान जब-जब मैं भारत आता, तब काकासाहेब को अपने काम का विवरण अवश्य देता । उनके आशीर्वाद और मेरे प्रयासों की स्नेहपूर्ण और विवेचनात्मक कद्र मेरे जीवन के अमूल्य तत्व बने हैं । उन्होंने बेटे के रूप में मुझे स्वीकार किया है। मैं उनको अपने विनम्र अभिनंदन अर्पित करता हूं | O
नमः परम् ऋषिभ्यः
कुदर दिवाण
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शुभाशुभाभ्यां मार्गाभ्यां वहन्ती वासना-सरित् । पौरुषेण प्रयत्नेन योजनीया शुभे पथि ॥
यह उपनिषद्-वचन बहुत ही मार्मिक है । यह मानव-जीवन का यथार्थ चित्रण और मार्ग-दर्शन करता है । नदी का प्रवाह जिस प्रकार किसी अज्ञात गिरि की गोद से निकलकर अच्छे-बुरे खेतों से बहता हुआ दूर के किसी अनजाने और असीम सागर में जाकर समा जाता है, उसी प्रकार यह हमारा जीवन भी है । उसका आदि-अन्त अज्ञात है । केवल मध्य ही गोचर है और हमें जो कुछ करना है, वह इसी मध्यावधि में करना है, अपने पौरुष प्रयत्नों से, अपने निजी बल से, करना है । मनुष्य जीवन का कोई लक्ष्य होता है और उसे प्राप्त करने का कोई क्रम है । मनुष्य वही है, जिसने ये दोनों समझ-बूझकर अपना लिये हैं। उपनिषद् ने मानव जीवन
५२ / समन्वय के साधक