Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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किया। इनमें सर्वश्री चन्द्रशंकर शुक्ल, शिवबालक बिसेन, अमृतलाल नाणावटी और सरोज बहन नाणावटी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
दक्षिण भारत के कुलीन ब्राह्मणों में तर्क-कौशल या तर्क-पटुता की जो एक दीर्घ और अटूट परम्परा पीढ़ियों से चली आ रही है, उसका खासा अच्छा उत्तराधिकार काकासाहेब को भी मिला है। तर्क-पटु विद्वान् या विचारक हमेशा सत्यनिष्ठ, संयमी और विवेकशील ही होते हैं, ऐसा कोई अटल नियम नहीं है। वे अपने तर्क के सहारे सच को झूठ, झूठ को सच, नीति को अनीति और अनीति को नीति सिद्ध करने की हद तक भी जा सकते हैं, और यह सब करके भी विद्वानों तथा विचारकों की मंडली में प्रतिष्ठा-पान बने रह सकते हैं। काकासाहेब की तार्किकता कभी इस तरह पटरी से उतरकर चली हो, निरंकुश बनी हो, इसके बहुत ही कम उदाहरण हाथ लग सकेंगे। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी तर्क-पटुता के कारण साथियों के बीच, संस्थाओं में या नित्य के व्यवहार में कभी कोई गलतफहमी, रोष, क्षोभ, टीका या घुटन पैदा ही न हुआ हो। कहा गया है कि वे जहां-जहां भी रहे, वहां-वहां उनके आसपास किसी-न-किसी तरह की प्रकट-अप्रकट खटपट की कुछ-न-कुछ अटपटी हवा जाने-अनजाने बनती रही। इसके कारण काकासाहेब को उनके सही स्वरूप में समझना उनके सब साथियों और सहयोगियों के लिए सदा सम्भव और सहज नहीं रहा। मैंने इसे उनकी मानवी मर्यादा माना है और यों मानकर अपने मन को आश्वस्त किया है। मानव के नाते परिपूर्ण तो हममें कौन, कब रह पाया है ? मुझे लगता है कि स्वयं काकासाहेब ने भी कभी अपने लिए पूर्णता का दावा नहीं किया।
काकासाहेब स्वभाव से आजीवन पर्यटक और परिव्राजक रहे हैं । अपने समय के प्रवास-प्रिय व्यक्तियों में उनकी अपनी एक मूलभूत विशेषता यह रही है कि उन्होंने प्रवास-जन्य निरीक्षण, अवलोकन और चिंतन का प्रसाद अपने चिरन्तन साहित्यिक रूप में इतनी विपुलता और विविधता के साथ बांटा है कि उसकी वैसी दूसरी मिसाल मिलनी मुश्किल है । ऐन जवानी में की गई उनकी सुप्रसिद्ध हिमालय-यात्रा से लेकर ठेठ बढापे तक की देश-विदेश की अपनी यात्राओं के संस्मरणों को उन्होंने जिस सहजता और कुशलता से रोचक. उदबोधक और प्रेरक बनाया है, उसके लिए देश का साहित्य-रसिक पाठक-समाज उनका सदा ही ऋणी और आभारी रहेगा।
हिन्दस्तानी-सभा, सन्निधि, राजघाट, नई दिल्ली से निकलने वाले अपने पाक्षिक 'मंगल प्रभात' के सम्पादक के रूप में काकासाहेब ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा का और अपने बहुमुखी सम्पादन-कौशल का अद्भत परिचय दिया है। सालोंसाल एक ही व्यक्ति के मौलिक, प्राणवान और प्रेरणाप्रद चिन्तन की इतनी विविधता वाली विपुल सामग्री सत्साहित्य के क्षेत्र में दुर्लभ ही कही जाएगी। अपनी इन बहुमूल्य सेवाओं के लिए वे देश के साहित्य-जगत् में लम्बे समय तक स्मरणीय, पठनीय और मननीय बने रहेंगे।
काकासाहेब के ऐसे वंदनीय और अभिनन्दनीय व्यक्तित्व के आगे नत मस्तक होने की प्रेरणा किसे न होगी? उन्हें मेरे शत-शत वन्दन और नमन ।
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.एगा
५६ / समन्वय के साधक