Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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है, वही उद्देश्य पत्र-व्यवहार का भी होना चाहिए। तभी उसमें स्वच्छंद आनंद आये, टिके और उसकी अभिवृद्धि हो सके । ... उम्र में चाहे कितना ही फर्क क्यों न हो, फिर भी पत्तों में समान भाव से विचार-विनिमय हो सकता है। विनोद भी हो सके और इस तरह से प्रगति भी उत्तम रूप में साध्य हो सकती है।" उनके विश्वजनीन रस और वैविध्य ग्रहण करने की अभिरुचि और जीवन का उत्साह मैं जता सकी और "विद्यार्थिनीने पत्त्रो" ने उसका रूप धारण किया ।
पत्र-व्यवहार के प्रारम्भ में एक पत्र में लिखा है 'प्रतित माता का संसर्ग अखंडित मिलता ही हैएक या दूसरे रूप में । प्रकृति माता से सख्य स्थापित होते ही अभ्यास में भी नया रस मिलता है, और सारा जीवन आनंदमय बन जाता है ।" उस बात का मुझे अनुभव होने लगा । चारों ओर फैले हुए सृष्टि-सौंदर्य की विपुलता और उसमें समाई हुई अगणित अनुभूतियों के स्पंदन मुझे छूने लगे। कितनी सही बात है कि जीवनाकाश में अगर यह आनंद का सूर्य चमकता न होता तो किसे जीना अच्छा लगता ?
इस तरह समुद्र का असीम जल हो या आकाश के सितारों का अनंत सौंदर्य, प्रकृति के अवर्णनीय आनंद की अनुभूति करने की सूक्ष्मता विकसित करने में मेरे दादाजी के पत्र मुझे अद्भुत प्रेरणा और दृष्टि देते रहे जिसका वर्षों के बाद भी जीवन के अनेकविध अनुभवों की विशेषताओं को समझने में आविष्कार होता हुआ मैंने देखा है ।
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• शब्दों का विचारपूर्ण प्रयोग कैसे किया जा सकता है, कहीं भी विचारों की या शब्द प्रयोग की असंगतता न आने पावे, ऐसा विचार कैसे रखा जा सकता है, उस ओर मुझे जागृत करते रहे और मेरी भूलों के प्रति ध्यान खींचकर योग्य मार्गदर्शन देते रहे, और वह भी बड़े प्रेम से । अंग्रेजी भाषा का आकर्षण और रौब बढ़ते ही स्वभाव का स्वरूप विकृत होने लगे, यह कितनी शोचनीय बात है, उसके प्रति भी ध्यान खींच कर प्यार से डांट दी थी।
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आदरणीय श्री मनुभाई पंचोली ने 'विद्यार्थिनीने पत्रों' की प्रस्तावना में बड़ी सुन्दर बात लिखी है, “विद्यार्थियों को अपनी क्षति और विशेषता - दोनों का दर्शन करवाना चाहिए, केवल कमी ही नहीं, न केवल विशेषता ही । कबीर ने कहा है :
"गुरु कुम्हार शिश कुंभ है, गढ़-गढ़ काड़े खोट,
अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट ।। "
दादाजी उसी भांति आंतरिक सहारा देकर बाहर से मेरा चरित्र निर्माण कर रहे थे---एक करुणामय गुरु के रूप में।
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इस पत्र-व्यवहार के समाप्त होने से पूर्व एक बार दादाजी ने मुझे 'कन्याविदाय' की झांकी करवाकर रुलाया था। मैं कॉलेज में गई, इससे मेरी परिस्थिति बदल गई थी - मेरी भावना नहीं, लेकिन उस समय एक ओर मेरे प्रति गहरी संरक्षित आत्मीयता का विश्वास दिलाते हुए और दूसरी ओर गाढ़े निःसंगता का भी अनुभव करवाते हुए लिखा, "अब तुम्हारी उम्र बढ़ी। एक अंक पूरा हुआ। बदली हुई परिस्थिति में नये संकल्प के साथ तुम मुझसे पत्र-व्यवहार कर सकती हो, लेकिन संभव है कि तुम्हें अब विचार-विनिमय करने के लिए किसी और अध्यापक या किसी माननीय व्यक्ति से पत्र-व्यवहार करने की इच्छा हो । नये व्यक्तित्व का विकास अनोखे ढंग से करना होता है तब उसमें मुख्य चीज यह होती है कि अपनी नई आकांक्षा संतुष्ट हो। इसलिए इस प्रकार का हमारा पत्र-व्यवहार यहां पूरा हुआ ऐसा अगर हम समझें तो उसका मैं
स्वीकार करूंगा।"
उसके लगभग तीन साल बाद मैं और ऋषि (मेरे पति ) परिचय में आए और जीवन में संघर्ष का भी ६६ / समन्वय के साधक