Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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सर्व-भाषा-मम-भावी ऋषि
रवीन्द्र केलकर
पूज्य काकासाहेब की गिनती गुजराती भाषा के प्रथम पंक्ति के साहित्यकारों में की जाती है। हालांकि उनकी मातृभाषा मराठी है और मराठी में भी उन्होंने उतना ही मौलिक साहित्य लिखा है। हिन्दी साहित्य में उनका क्या स्थान है, मुझे मालूम नहीं है। किन्तु इतना मैं अवश्य कह सकता है कि पिछले चालीस वर्षों में उन्होंने हिन्दी में जितना और जिस प्रकार का साहित्य लिखा है, उतना यदि वे तमिल या बंगला भाषा में लिखते तो तमिलभाषी या बंगलाभाषी उनकी गिनती निश्चय ही तमिल या बंगला के प्रथम पंक्ति के साहित्यकारों में करते।
मैं कहने यह जा रहा था कि गुजराती और हिन्दी में जीवन-भर लिखते रहने पर भी काकासाहेब को शायद ही कभी इस बात की विस्मृति हुई होगी कि असल में वे महाराष्ट्रीय हैं और मराठी उनकी जन्मभाषा है। एक बार बातें करते समय उन्होंने मुझसे यहां तक बताया था कि बरसों से गुजराती समाज में घुल-मिल जाने पर भी और जीवन का बहुत बड़ा और महत्त्व का काल हिन्दी की सेवा में अर्पित करने पर भी "अब भी मूझे स्वप्न मराठी में आते हैं । मेरे स्वप्नों की भाषा मराठी ही है।"
हां, उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि "मुझे महाराष्ट्र या मराठी का अभिमान है।" 'अभिमान' को उन्होंने हमेशा एक दुर्गुण ही माना। कई बार उन्होंने हमें बताया है, “अभिमान की जगह भक्ति को देनी चाहिए। अभिमान से नशा पैदा होता है, जबकि भक्ति की परिणति सेवा में होती है।" काकासाहेब में जो महाराष्ट्र-भक्ति या मराठी-भक्ति है वह किसी भी श्रेष्ठ महाराष्ट्रीय से कम नहीं है। महाराष्ट्र के राष्ट्र-पुरुषों के बारे में, संतों के बारे में या समाज-सेवकों के बारे में जब वे बोलते हैं, तब उनका हृदय गदगद् हो उठता है। पिछले पचीस वर्षों में मुझे ऐसे कई प्रसंग याद हैं, जब कि महाराष्ट्र के सत्पुरुषों के बारे में बोलते समय मैंने काकासाहेब की आंखों में आंसू देखे हैं।
इतना सब होते हुए भी बीच में एक समय ऐसा भी आया था, जबकि महाराष्ट्र के चंद लोग-विशेष रूप से चंद राजनीतिज्ञ और पत्रकार--काकासाहेब को 'महाराष्ट्र-विरोधी' मानने लगे थे।
इसका एक महत्त्व का कारण था :
लोकमान्य तिलक के कारण देश का नेतृत्व बरसों तक महाराष्ट्र के हाथों में रहा । लोकमान्य के चंद साथियों का अनुमान था कि लोकमान्य के बाद भी देश का नेतृत्व महाराष्ट्र के ही हाथों में रहेगा। किन्तु इतिहास ने ऐसा होने नहीं दिया। लोकमान्य की मृत्यु के बाद देश का नेतृत्व गांधीजी के हाथों में चला गया।
महाराष्ट्र के उन नेताओं को इससे बड़ा दुःख हुआ था।
काकासाहेब महाराष्ट्रीय थे। लोकमान्य के संस्कारों में पले हुए राष्ट्रसेवक थे। वे जब महाराष्ट्र छोड़कर गुजरात में जा बसे और गांधीजी के एक प्रमुख साथी बने, तब उन नेताओं को लगा, मानो काकासाहेब ने महाराष्ट्र को बहुत बड़ा धोखा दिया है। इसपर काकासाहेब ने एक बहुत बड़ा 'अपराध' किया। गंगाधरराव देशपांडे लोकमान्य के 'दाहिने हाथ' माने जाते थे। काकासाहेब ने उनको 'गांधीवादी' बनाया। (गंगाधरराव ने स्वयं पूना में आकर यह बताया।) तब से काकास.हेब महाराष्ट्र में बड़े ही 'अप्रिय' हुए। कठोर आलोचना के भाजन बने ।
६८ / समन्वय के साधक