Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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पता ने हमारे बीच निकट का हार्दिक संबंध उत्पन्न किया है, क्योंकि मुझे भी जानवर बहुत प्यारे लगते हैं । मेरी अपनी जाति, हमारी प्राचीन ईरानी संस्कृति और भगवान जरथुस्त्र की करुणा पूर्ण शिक्षाओं की कद्र करके उसका आदर करने की सीख मुझे काकासाहेब ने ही दी है, जिसके लिए मैं उनकी चिर ऋणी हूं । भगवान जरथुस्त्र ने कहा है, "प्राणी मात्र की सेवा को ही अपना आजीवन धर्म मानो।"
इस श्लोक के जीते-जागते साकार मूर्त स्वरूप ही हैं हमारे प्यारे काकासाहेब | O
मेरे प्यारे दादाजी
निरुपमा मारू
OO
बचपन से ही जीवन के प्रति एक मंगल दृष्टि का विकास हो, छोटी-छोटी चीजों में छिपे हुए आनन्द को ढूंढ़कर उसे अपना बना लेने की और उस आनन्द में अपना आनन्द मिलाकर दूसरों के सामने उसका नलराना पेश करके दुगुना आनन्द प्राप्त करने की कला का आविर्भाव हो और वैसी वृत्ति आत्मसात हो सके यह जीवन विकास का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सोपान है, वैसा मेरे माता-पिता मानते रहे हैं। उसी दृष्टिकोण से मेरी मां ने जब काकासाहेब की पुस्तकों में से 'स्मरणयात्रा', 'लोकमाता', 'जीवनो आनंद', 'हिमालयनी प्रवास' इत्यादि में से कई एक परिच्छेद पढ़-सुनाकर उन सब पुस्तकों को अपने-आप पढ़ लेने का उत्साह और प्रेरणा दी, तब से मेरी छोटी-सी सृष्टि की परिधि अपने-आप विस्तरित होने लगी । काकासाहेब के साहित्य को पढ़ते-पढ़ते उनके सभी अनुभवों को मैं स्वयं अनुभव कर रही हूं, ऐसा अनुभव होता था, और उस आनंदमय व्यक्तित्व के साथ, दूर रहते हुए भी, एक विचित्र आत्मीयता घनिष्ठ होती हुई अनुभव करने लगी थी ।
साहेब से हमारा कौटुम्बिक संबंध तो बरसों पुराना था ही, और मैं उनसे पहली बार मिली भी उनके प्रिय शिष्य पुरुषोत्तम और विजया की पुत्री के नाते ही; परन्तु जब मैंने उनसे पूछा, "अगर मैं पत्र लिखूं तो आप मुझे उत्तर देंगे ?” और उन्होंने वात्सल्यभाव से पत्त्र-व्यवहार करने की बात को स्वीकार किया, तब से ही हमारे नये संबंध का प्रारम्भ एक अनोखी भूमिका पर हुआ। उसी क्षण से उन्होंने एक नन्हें-से बीज को बड़े जतन से पालकर उसके कोमल अंकुर को प्रफुल्लित पौधे में विकसित करने की श्रद्धापूर्ण, निष्ठापूर्ण, फिर भी सहज, ऐसी एक माली की जिम्मेदारी कुछ भी ज्यादा कहे बिना स्वीकार कर ली थी ।
मुझे कितना कुछ कहना था, कितना ही पूछना और समझना था, ऐसे समय में मुझे मेरे ऐसे दादाजी मिल गये, जो मेरी बात को सम्मान की दृष्टि से, रस से सुनने और समझने के लिए तैयार थे। तब से वे मुझे सहज रीति से योग्य मार्गदर्शन देकर और भी गहराई से, विशाल दृष्टि से सब कुछ देखने, समझने और अनुभव करने की शिक्षा देते रहे ।
काकासाहेब के शब्दों में ही कहूं तो, "शिक्षण तो प्रत्यक्ष सहवास से ही दिया जाता है । लेकिन पत्तों द्वारा शिक्षण कम नहीं दिया जाता। ऐसे पत्र शिक्षण में मदद रूप भले ही होते हों, परन्तु उनका मुख्य उद्देश्य शिक्षण का ही नहीं होना चाहिए। वार्तालाप जीवन के आनंद के लिए और जीवन के विनिमय के लिए होता
व्यक्तित्व : संस्मरण / ६५