Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
View full book text
________________
सूजनता न छोड़ें। काकासाहेब को मैं बहुत दिनों से जानता हूं। उन्हें अपना गुरु मानता हूं । जब कभी उनसे मिलता है । तो बातचीत में गांधीजी के प्रति उनकी अपार भक्ति का दर्शन होता है। उनका मानना है कि गांधी, टैगोर और अरविन्द के आश्रम नवभारत के तीन महातीर्थ हैं। समन्वय संस्कृति के साधकों को कुछ समय के लिये वहां जाकर रहना चाहिये।।
___ काकासाहेब बड़े घुमक्कड़ हैं। प्रकृति से उन्हें बहुत प्रेम है। देश-विदेश की यात्रा उनके जीवन में निरन्तर चलती ही रही। परन्तु उनकी इस वृत्ति के पीछे उनके दो लक्ष्य रहे। एक रहा विज्ञान दर्शन । वह जहां भी गये, जो कुछ देखा, उसे आत्मसात किया और यत्र-तत्र-सर्वत्र उसकी वैज्ञानिक जानकारी फैलाई। भारतीय जीवन को विभिन्न रूपों में देखा। सबमें एकरूपता लाने के लिये सदा प्रयत्नशील रहे। भारतीय जीवन में आर्थिक साम्य, सामाजिक साम्य तथा मानसिक साम्य कैसे लाया जा सके, हमेशा उनकी यह चिन्ता बनी रही और जिसके लिये उन्होंने जीवनभर अपनी पूरी शक्ति से काम भी किया। प्रवासी भारतवासियों के बीच जाकर उनकी समस्याओं को समझ भारत तथा प्रवासी सरकारों के सामने समाधानकारक हल भी पेश किये। 'उस पार के पड़ोसी' पुस्तक में उनके समन्वय संस्कृति से सम्बन्धित विचार मिलते हैं-"हिन्दु संस्कृति का सच्चा रहस्य समझने के पश्चात और संसार के सारे धर्मों के प्रति समता और आदर का भाव पैदा होने के बाद अब जैसे सारे धर्म मुझे सच्चे, अच्छे और अपने ही लगते हैं, वैसे ही संसार के सारे देश मुझे भारत भूमि के जैसे ही पवित्र और पूज्य मालूम होते हैं।"
काकासाहेब कहते हैं-'जीवन व्यक्ति का हो, राष्ट्र का हो या समस्त मानव जाति का, संघर्ष टालकर उत्कर्ष-सिद्धिप्रद समन्वय ही उसे समर्थ और कृतार्थ करेगा। संस्कृति का पूर्वार्ध है संघर्ष और सहयोग। उत्तरार्ध है—समन्वय। काकासाहेब समन्वय की जीवन्त प्रतिमूर्ति हैं। उनके लिये सभी जाति के, सभी धर्मों के, सभी संस्कृतियों के सभी देशों के लोग एक हैं ! काकासाहेब जैसे समन्वय संस्कृति के प्राकाशदीप के लिये यह स्वाभाविक ही हैं। विनोबा मानते हैं-" हम विश्व मानव हैं, किसी देश विशेष के अभिमानी नहीं, किसी धर्म विशेष के आग्रही नहीं, किसी सम्प्रदाय या जाति विशेष के बन्दी नहीं। विश्व के सदविचार उत्थान में विहार करना हमारा स्वाध्याय होगा, सद्विचार को आत्मसात् करना हमारा अभ्यास होगा और विरोधों का निराकरण करना हमारा धर्म होगा। विशेषताओं में सामंजस्य करके विश्ववृत्ति का विकास करना हमारी वैचारिक साधना होगी।" यही वह साधना मार्ग है जिस पर काकासाहेब ने चलकर अपना ही नहीं अपने सम्पर्क में आये अनेक लोगों का जीवन सफल बनाया।
भगवान से मेरी प्रार्थना है कि काकासाहेब शतायु हों
उनका पावन योगदान गुलाम रसूल कुरैशी
00
काकासाहेब के साथ का मेरा परिचय करीब साठ वर्ष का है। १९२०-२१ में गुजरात कालेज में जब मैं अध्ययन करता था तब उनके लेखों से आकर्षित हुआ। सरल भाषा, सुन्दर विचार और समझाने का मार्मिक ढंग हम सब युवकों को मुग्ध कर देता था। यह था काकासाहेब का परोक्ष परिचय ।
६० | समन्वय के साधक