Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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काकासाहेब मेरे उच्चारण सुधारते। उसमें ट्रथ (सत्य) का उच्चारण लघु स्वर का है, यह मैं सीखा।
जो बात 'साधना' से सिद्ध न हो सकी वह अनायास सिद्ध हो गयी। काकासाहेब वैसे तो कला-भक्त थे, फिर भी वे संयम प्रधान शुष्क रस वृत्ति के हैं, ऐसी छाप मुझ पर थी। एक समय हम दो-तीन विद्यार्थी उनके पास बैठे थे हममें से एक ने बहुत दबा-दबाकर सिर के बाल बनाये थे। काकासाहेब ने हंसकर कहा कि इन बालों को इस तरह कैद कर रखा है, यह अच्छा नहीं है। उनको जरा मुक्त रखिये। स्वयं बाल न रखते हए भी बाल रखने में उनको कोई एतरात नहीं, बल्कि बाल किस तरह अच्छे लगेंगे, यह भी समझाते हैं, यह देखकर मुझे खुशी हुई।
विद्यापीठ के चार वर्ष पूरे करके मैं वतन गया। अब मानों सनातन छुट्टियां शुरू हो रही थीं। भविष्य में क्या करना, उसका विचार आकर अटक जाता । गरमी की 'एक दोपहर को मैं कुएं पर स्नान कर रहा था तब मेरा छोटा भाई एक पत्र ले आया। वह काकासाहेब का था। आपने सोनगढ़ गुरुकुल को मुझे सौंपा था। अध्यापक के रूप में वहां मेरी नियुक्ति हुई थी। और शामलदास भाई के साथ मुझे वहां जाना था। मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। काकासाहेब ने मुझे ठिकाने लगा ही दिया ! औरों के साथ आप्तभाव से भरा उनका वर्तन देखकर मुझे ईर्ष्या रहती थी, वह अब चली गयी। मुझे क्या पता था कि काकासाहेब मेरे लिए कैसा आप्तभाव रखते हैं ?
सोनगढ़ में मैंने एक वर्ष बिताया। नया-नया शिक्षक था। मुझे काफी मुश्किलें आतीं। काकासाहेब उन मुश्किलों का निराकरण सुझाते। १६३० के सत्याग्रह में मैंने जंबुसर तालुका में काम करके अपना योगदान दिया। गांधी-इविन करार होने पर अब मेरे सामने प्रश्न था-क्या करना ? शान्तिनिकेतन हो आने का कुछ विचार था । अहमदाबाद गया, तब काकासाहेब से मिला। बातों-बातों में मैंने अपने भावी कार्यक्रम की सूचना उन्हें दी। एकाध क्षण रुककर उन्होंने मंद स्मित के साथ कहा, "मैं नहीं मानता कि आपको वहां जाने की आवश्यकता है। विद्यापीठ ने आपको क्या काम दिया है ?" ऐसे जवाब की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। किन्तु काकासाहेब के उस एक वाक्य से शान्तिनिकेतन जाने की मेरी वृत्ति पलट गयी। अपूर्णता का भास पिघल कर विशेष तृप्ति का अनुभव मैंने किया। काकासाहेब के अनेक प्रवचनों से मैंने जो नहीं पाया, वह उनके एकाध वाक्य से बहुत बार प्राप्त किया।
उपनिषद् पाठावली से आरम्भ होने वाला मेरा परोक्ष परिचय इस तरह सघन आत्मीयता में परिणत हुआ। काकासाहेब के आसपास वह उपनिषद् काल का और उससे भी विशेष सुसंस्कृत युग का कुछ अर्वाचीनता से मिश्रित मधुर वायुमंडल बना रहता है। उन्होंने मुझे स्वायत्त परिपूर्णता की जो दीक्षा दे दी, वह कितनी महान थी, उसका पूरा विचार उनको भी शायद नहीं होगा।
काकासाहब शिक्षा के कलाकार कहलाते हैं। किसी भी तत्व का संक्रमण उत्तम तरह से तभी हो सकता है जब उसके लेने वाले और देने वाले अपने मुक्त अन्तःकरण को सर्वभाव से उन्मुख करके एक-दूसरे की ओर अभिमुख होते हैं। उस स्थिति में एकाध वाक्य, एकाध शब्द, एकाध दृष्टिपात भी भारी काम कर देते हैं। काकासाहेब के पास यह मेरी सच्ची उप-नि-षद् थी।
व्यक्तित्व : संस्मरण | ४७