Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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आगे सब कहते हैं, जब तक मेरी जीवन-यात्रा तेजी से चलती है, 'बुढ़ापा' और 'मौत' मुझे पा नहीं सकते ।
इन प्रवासों ने काकासाहेब को जहां दीर्घायु प्रदान की है, कर्मठ बनाया है, प्रकृति के साथ उनका अभिन्न नाता जोड़ा है, वहां मानव और प्रकृति के समन्वय का अवसर भी प्रदान किया है । अपनी रचनाओं जब काकासाहेब प्रकृति का संगीत सुनाते हैं तो मानो मानव के हृदय का संगीत भी स्वतः ही प्रस्फुटित उठता है । इसी से काकासाहेब के प्रवास वृत्तान्त जहां प्राकृतिक सौंदर्य के सजीव चित्रों से पाठकों को विभोर कर देते हैं, वहां उन चित्रों में मानव हृदय का छलछलाता स्पन्दन उन्हें अलौकिक आनंद से सराबोर कर देता है ।
कहते हैं, यह संसार आदान-प्रदान पर चलता है । जितना हम लेते हैं, उतना हमें देना ही पड़ता है; पर काकासाहेब हैं कि जीवन-भर देते रहे हैं, भर-भर हाथों देते रहे हैं, और लेने के अवसर पर उन्होंने सदा अपने हाथ पीछे खींच लिये हैं । उनके अंतर का स्रोत आज भी भरा-पूरा है तो उसका रहस्य यही है कि उन्होंने जितना दिया है, उसका शतांश भी लिया नहीं है । यही कारण है कि सौ के निकट पहुंचकर भी उनमें तरुण जैसा उत्साह और उमंग है ।
साहेब के लिए कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं है। वह प्रत्येक कार्य को पूजा की भावना से करते हैं। पढ़ने-लिखने का ढंग, रहन-सहन की कला, वक्तृत्व शैली जैसी चीजें तो कोई उनसे सीख सकता है,
यह भी शिक्षा ले सकता है कि कम-से-कम साबुन में और कम-से-कम पानी में कपड़े किस प्रकार साफ धोये जा सकते हैं और कम-से-कम स्थान में अधिक-से-अधिक सामान किस प्रकार व्यवस्थित रूप में रक्खा जा सकता है । यद्यपि वृद्धावस्था के कारण अब उनका शरीर कुछ थक गया है, कान से सुन नहीं पाते, स्मरण शक्ति काफी क्षीण हो गई है, फिर भी उनके जीवन की कला-पूर्ण व्यवस्थितता आज भी बनी हुई है।
बहुत वर्ष पहले का एक प्रसंग मुझे याद आता है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में भाग लेकर हम लोग शिमला से लौट रहे थे । काकासाहेब भी तीसरे दर्जे के डिब्बे में हमारे साथ थे । बोले, "जानते हैं, तीसरे दर्जे को पहले दर्जे का डिब्बा कैसे बनाया जा सकता है ?" मैंने कहा, "नहीं ।"
तब उन्होंने दरी को तह करके सीट पर बिछाया, उसपर कम्बल बिछाया और फिर चादर बिछाई । सीट गुदगुदी हो गई। जिस सुरुचिपूर्णता और व्यवस्थितता से काकासाहेब ने उस काम को किया, उसकी छाप आज तक मेरे मन पर बनी हुई है। जो जीवन की कला जानते हैं, उनके लिए परिग्रह की आवश्यकता नहीं है । वे तो अपरिग्रह को ही वैभवशाली बना देते हैं, सादगी को गरिमा प्रदान कर देते हैं ।
काकासाहेब की इक्यासीवीं वर्षगांठ पर उन्हें अर्पित करने के लिए हम लोगों ने जो ग्रंथ तैयार किया था, उसका नाम 'संस्कृति के परिव्राजक' रखा था। आज उनकी ९४वीं वर्षगांठ के मंगल अवसर पर 'समन्वय के साधक' की संज्ञा से विभूषित करके मेरा मन अधिक आनन्द का अनुभव कर रहा है । अपने विनम्र प्रणाम अर्पित करते हुए मैं प्रभु से कामना करता हूं कि काकासाहेब अभी अपने जीवन के अनेक हरे-भरे वसंत देखें और हमें उनसे नित नई प्रेरणाएं प्राप्त करने का सौभाग्य मिलता रहे । O
व्यक्तित्व : संस्मरण / ४३