Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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गुजरात विद्यापीठ में
सुंदरम्
00 भूतकाल हमेशा सुवर्ण युग-सा प्रतीत होता है। १९२४ में जब मैं विद्यापीठ में दाखिल हुआ, तब उसकी स्थापना के चारेक वर्ष ही व्यतीत हुए थे। इतने समय में कई अध्यापक आ-जा चुके थे। हम जब उस भूतकाल की बातें सुनते तब हमें लगता था कि बहुत-सी उत्तम चीजो से हम वंचित रह गये । हमारा युग हमें सुवर्णयुगसा नहीं मालूम होता था, किन्तु कई बातें, जिनकी स्वल्प इच्छा की हो, किन्तु अकल्पित प्रचुर परिमाण में मिल जाती हैं, ऐसा काकासाहेब के बारे में हुआ।
प्रथमा के वर्ग में संस्कृत विषय सिखाते समय उपनिषद पाठावली के अध्ययन के साथ काकासाहेब का प्रथम परोक्ष समागम हुआ। इस पुस्तक के संपादकों में भी वह थे, ऐसा स्मरण है। सत्यं वद । धर्म चर। आचार्य देवो भव । यान्यस्माकं सुचरितानि तान्येव त्वयोपासितव्यानि, नो इतराणि, नो इतराणि। यद् भूमा तत् सुखम् , नाल्पे सुखमस्ति। जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में ही उपनिषदों के इन महावाक्यों का प्रथम परिचय हुआ। ऐसे परम गहन सत्य जिनमें हैं, वे उपनिषद् ग्रंथ कैसे होंगे, इन ग्रंथों में से हमारे लिए चुन-चुन कर उत्तम पाठावली तैयार करने वालों की विद्वत्ता कैसी होगी? उनका स्वभाव कैसा होगा?...ऐसे विचार मुझे आते रहते । काकासाहेब के बारे में ज्यादा जान लेने की उत्कंठा होने लगी।
किन्तु उस समय काकासाहेब विद्यापीठ में थे नहीं। 'साबरमती' द्वैमासिक की फाइल देखते-देखते उसमें विद्यापीठ के कई पुराने अध्यापकों की छवियां देखने को मिलीं। उनमें काका की छवि थी या नहीं, याद नहीं । काकासाहेब की जो पहली छवि मेरे सामने आयी, वह है हिमालय के प्रवासी की-भरी हुई दाढ़ी वाले काकासाहेब का चित्र । उनके 'हिमालय के प्रवास' में ही शायद वह रखी गयी थी।
काकासाहेब हमारे तीसरे आचार्य थे। गिडवानी के बाद कृपालानी आचार्य होकर आये, तब वह राज्य-परिवर्तन सौम्य शान्ति-पूर्वक हुआ था। कृपालानी के पश्चात् आचार्य के तौर पर काकासाहेब आये तब वह युगक्रान्ति कुछ अलग तरीके से हुई । जाते समय कृपालानी ज़्यादा लोकप्रिय बने थे। गुजरात कालेज की हड़ताल को सफल करने में उनके नेतृत्व का अच्छा सहयोग था। सारे गुजरात के युवा वर्ग को उन्होंने मुग्ध किया था। विद्यापीठ में उनका विदाई-समारोह अकल्प्य भव्यता से मनाया गया। उत्साह और विषाद के तीव्र आरोह-अवरोह की ऐसी भूमिका पर काकासाहेब का विद्यापीठ में आगमन हुआ।
___ उनके आने के बाद तो युग ही पलटने लगा। तंत्र हाथ में लेने के बाद काकासाहेब ने हमें पहला सबक दिया-स्वतंत्रता और अतंत्रता के बीच के भेद का। विद्यापीठ के तंत्र में अधिक स्वच्छता, अधिक सुव्यवस्था और अधिक कर्मशीलता लाने का लक्ष्य था।
नई विधियां और नये निषेध आने लगे। हम सब विद्यार्थी अपना कचरा-दतौन के टुकड़े, कागज के टुकड़े, जूठा पानी इत्यादि पीछे अपनी खिड़कियों में से यथेच्छ फेंकते थे। काकासाहेब ने आकर कचरापेटियां रखवा दी और उसी में कचरा डालने का उपदेश दिया। खिड़की में से कचरा फेंकने की क्रिया के लिए उन्होंने 'ओकना' या 'कै करना' शब्द का प्रयोग किया था। वह मेरे मन में चिपक गया। किन्तु हम ऐसे तुरन्त मान जाने वाले थोडे थे। काकासाहेब के विधि-निषेध उमंग से अपनाने वाले विद्यार्थियों में एक थे अमृतलाल नाणावटी। हमारे दुराग्रह के विरुद्ध नाणावटी सक्रिय सदाग्रह करते । काकासाहेब के सदुपदेश के बाद भी सुबहसूबह हम दतौन के टुकड़े खिड़की में से बाहर फेंक देते, तब एक टोकरी लेकर नाणावटी उनको उठाने निकल
४४ । समन्वय के साधक