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ज्यों था त्यों ठहराया
कर रोया था, आंख आंसुओं से गीली हो गई थीं--वह बुद्ध को सुन कर ऐसा ही बैठा रहा। कहीं तालमेल न बैठा। और जो बुद्ध को सुन कर गदगद हो आया, जिसके भीतर कुछ ठहर गया बुद्ध को सुनतेसुनते--वह मीरा को सुन कर सोचता रहा था; यह सब कल्पना-जाल है! यह सब भ्रम है! ये सब मन के ही भाव हैं। कहां कृष्ण? कहां कृष्ण की बांसुरी? कैसा नृत्य? यह मीरा स्त्री थी, भावुक थी, भावनाशील थी। भजन तो अच्छे गाए हैं! वह उनकी भजन की प्रशंसा कर सकता है--काव्य की दृष्टि से, संगीत की दृष्टि से, मगर, और उसके भीतर कुछ नहीं होता। लेकिन जो मीरा को देख कर डांवाडोल हो गया था, वह बुद्ध को सुनता है, लगता है: हैं-- रेगिस्तान जैसे! उसके भीतर कोई फूल नहीं खिलते। उसका दिल ऐसा नहीं होता कि दौड़ पडूं इस रेगिस्तान में। कि जाऊं और खो जाऊं इस रेगिस्तान में। न कोई कोयल बोलती है। न कोई पक्षी चहचहाते हैं। कुछ भी नहीं। सन्नाटा है। यहां मैं सारे द्वार तुम्हारे लिए खोल रहा हूं। इस तरह की बात कभी पृथ्वी पर नहीं की गई। इसलिए मैं इसे भगीरथ-प्रयास कह रहा हूं। यह पहली बार हो रहा है। महावीर ने अपनी बात कही। मैं भी अपनी बात कह कर चुप हो सकता हूं। मगर मेरी बात कुछ लोगों के काम की होगी, थोड़े से लोगों के काम की होगी। मीरा ने अपनी बात कही। बुद्ध ने अपनी बात कही। कृष्ण ने अपनी बात कही। अब समय आ गया कि कोई इन सबकी बात को पुनरुज्जीवित कर दे। इसलिए तुम्हें मेरी बातों में बहुत से विरोधाभास मिलेंगे। मिलने वाले हैं। क्योंकि जब मैं मीरा पर बोलता हूं, तो मीरा के साथ एकरूप हो जाता हूं। फिर मैं भूल ही जाता हूं--बुद्ध को, महावीर को। फिर मुझे कुछ लेनादेना नहीं। और अगर किसी ने बुद्ध-महावीर की बात छेड़ी, तो मैं मीरा के सामने उन्हें टिकने नहीं दूंगा! जब मीरा मैं हूं, तो उस समय मीरा मैं हूं। और जब मैं बुद्ध के संबंध में बोल रहा हूं; किसी ने कहा कि अब मेरी आंखों में आंसू नहीं आ रहे--तो मैं उसे झकझोरूंगा। तो मैं कहूंगा कि तुम्हें रोना हो, तो कहीं और जा कर रोओ। रोने की जरूरत क्या है! मीरा के समय जरूर कहूंगा कि रोओ, जी भर कर रोओ। गीले हो जाओ। इतने गीले कि बिलकुल भीग ही जाओ। तरोबोर हो जाओ। तो मेरी बातों में तुम्हें विरोधाभास मिलेंगे, क्योंकि मैं सारे द्वार खोल रहा हूं। वे अलग-अलग द्वार हैं। उनकी कुंजियां अलग; उनके ताले अलग; उनकी स्थापत्य कला अलग; उनका रंगढंग अलग। मगर ये सब द्वार एक ही जगह ले जा रहे हैं। ज्यूं था त्यूं ठहराया! अब्दुल करीम! मत पूछोः । इश्के बुतां करूं कि मैं यादे खुदा करूं इस छोटी-सी उम्र में, मैं क्या-क्या खुदा करूं बस, इतना-सा कर लो। यह छोटी उम्र नहीं है, बहुत है। हिसाब से दी गई है। इससे ज्यादा तुम शायद झेल भी न पाओ। इससे ज्यादा शायद झेलना मुश्किल हो जाए।
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