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चलाने की विनती करने लगे, लेकिन कुछ भी सुने बिना वे चारित्र में अटल रहें। किसीको भी उत्तर न दिया और विहार कर गये।
इन्द्र ने पुनः उनके संयम और नि:स्पृहता व उनकी लब्धि की प्रशंसा की। पुनः एक देव को सनतऋषि की परीक्षा लेने का मन हुआ। वैद्य रूप धारण कर सनत मुनि के पास पहुंचे और उपचार करने को कहा। सनतकुमार ने कहा, 'मुझे कोई इलाज़ नहीं कराना है। मेरे कर्मों का ही मुझे क्षय करना है, इसलिए भले ही रोग का हमला हो, इलाज करना ही नहीं है। औषध तो मेरे पास क्या नही है? कईं विद्याएँ प्राप्त हुई है। देखो, मेरा यह थूक जहाँ भी लगाऊँ, वहाँ सब ठीक हो जाता है। काया कंचनवर्णी हो जाती है। ऐसा कहकर अपना यूंक एक अंगूली पर लगाया तो वह भाग कंचन समान शुद्ध हो गया। ऋषि की ऐसी लब्धि देखकर देव प्रसन्न होकर अपने स्थान पर लौटे। सनतकुमार ने इस रोग का परिषह होना चाहिये या परिसर बराबर है ? सातसों वर्ष तक सहा। कभी भी उपचार नहीं किया, समता रखकर कालानुसार तृतीय देव लोक पधारे। तत्पश्चात् दूसरा भव करके मोक्ष पधारेंगे।
धूपबत्ती
जगत की अपवित्रता एवं दुर्गन्ध दूर करने स्वार्पण का व्रत लिया... और स्वार्पणयज्ञ में छोटी सी सुगंध रानी बेआवाज़ धीमे धीमे जलकर सुबासपूर्ण आहुति बन गई।
ज्यों ज्यों वह आग स्वीकार करती गई त्यों त्यों उसकी सुगन्ध ज्यादा से ज्यादा फैलती रही।
धीरे धीरे उसकी देह खाक होने लगी और उसका जीवनधूप वातावरण को सुवासित एव शुद्ध बनाता हुआ, सर्वत्र स्नेह और सद्भाव की पवित्र महक प्रसारित करता हुआ, समर्पण भावना का मूक संगीत बहाता रहा।
धूपबत्ती जैसी पवित्रता हम भी प्रसारित करें।
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जिन शासन के चमकते हीरे • २२