Book Title: Jinshasan Ke Chamakte Hire
Author(s): Varjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
Publisher: Varjivandas Vadilal Shah

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Page 312
________________ के शरीर का स्पर्श होती ही वह केर के अंगारे समान खूब गर्म लगा। जिससे वह विरागी होकर उसे सोती छोड़कर अपने घर चला गया। सागर के चले जाने से प्रभात में सुकुमारिका अत्यंत रुदन करने लगी, 'मेरे पति मुझको छोड़ गये हैं।' यह जानकर उसके पिता सागरदत्त जीनदत्त को मिले और कहा, 'आपका लड़का मेरी लड़की के साथ शादी करके छोड़कर आपके यहाँ आया है । इस कारण जीनदत्त ने अपने लडके सागर को समझाने का प्रयत्न किया, परन्तु सागर ने कहा, 'हे तात! आज्ञा दो तो जल या अग्नि में प्रवेश कर लूं लेकिन उस स्त्री के शरीर का स्पर्श अंगारे समान है। इसलिये उसके पास पलभर भी मैं रहूंगा नहीं।' सागरदत्त ने घर आकर पुत्री को कहा, 'हे पुत्री! सागर तेरे लिए मन से भी नहीं सोचता है तो बात तो करे कहाँ से? इसलिये तेरे लिये दूसरा उत्तम, कुलीन वर ढूढूंगा। तुझे इस बात का दुःख मन में नहीं रखना है।' तत्पश्चात् सागरदत्त ने अन्य निर्धन पुरुषों को अपनी पुत्री के पाणीग्रहण के लिये, लाया, परंतु उन हरेक को सुकुमारिका का शरीर अग्नि जैसा लगने से उसे छोड़कर भाग गये। इस प्रकार होने से सुकुमारिका बहुत रुदन करने लगी। यह देखकर उसके पिता सागरदत्त उसे सांत्वना देकर कहते, 'पूर्व किये हुए कर्म छूटते नहीं है। वह भोगने ही पड़ते हैं। गुणीजनों को भी भिक्षार्थ भटकना पड़ता है और कोई मूर्ख होने पर भी संपत्ति भोगता है, सो पूर्व के कर्मों का नाश करने के लिए तूं दान दे, तपश्चर्या कर और आत्मा को शांत करके रह।' पिता के ऐसे वचनों को सुनकर वह संतोषपूर्वक रहने लगी और जैन धर्म का महत्त्व समझकर दान, तप वगैरह में अपना समय बिताने लगी। ____ एक बार कोई साध्वी गोचरी के लिए वहाँ पधारी । उनको शुद्ध अन्न पानी से भावसहित प्रतिलाभित करके उसने दीक्षा ग्रहण की और पूर्व के उपार्जित किये कर्मों का नाश करने के लिये दुष्कर तप प्रारंभ किये। थोड़े दिनों के बाद उसको इच्छा हुई, 'किसी एकांत वन में जाकर वहाँ छठ्ठ, अठ्ठम का तप करके सूर्य के सामने ही दृष्टि रखकर एकाग्र मन से आतापना करूं।' इसके लिये उसने प्रवर्तिनी की आज्ञा माँगी। प्रवर्तिनी ने समझाया कि बाहर उद्यान या वन में जाकर आतापना करनी साध्वी को लेशमात्र योग्य नहीं है। फिर भी वन में जाने का बड़ा आग्रह किया। चारा न देखकर गुरुजी ने उसे 'जहाँ-सुखं' कहकर आज्ञा दी। जिन शासन के चमकते हीरे • २८३

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