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पृथ्वी पर गिराऊँगा। तब चारों पैरों से दबाकर चूर्ण कर डालूंगा।' ऐसा कहकर उस देवता ने सर्व शक्ति से हस्तीरूप परिषह दिया मगर श्रेष्ठी जरा सा भी क्षोभ न पाया। तब उसे क्षोभ देने के लिये महाभयंकर अनेक फनवाले सर्प का रूप लिया और सब फनों से फुफकारता हुआ वह बोला, 'अरे! मृत्यु की प्रार्थना करनेवाले! श्री वीर धूर्त के धर्म को छोड़कर मुझे प्रणाम कर, नहीं तो मैं ऐसा दंश दूंगा कि जिसके विषं की वेदना से पीडीत होकर तूं दुर्गति पायेगा।' ऐसी वाणी से भी श्रेष्ठी जरा सा भी न घबराया। तब सर्प ने उसके शरीर पर तीन लपेट ली और उसके कण्ठ पर निर्दयता से दंश दिया। विष की वेदना को भी श्रेष्ठी ने सम्यक प्रकार से सही और मन में श्री महावीर परमात्मा का स्मरण करते हुए अधिक से अधिक ध्यान धरने लगा।
देवता को लगा कि इसके दृढ मनोबल की शक्ति का अल्प नाश करने के लिए भी वह समर्थ नहीं है, अंत में देवता थक गया। तब श्रेष्ठी को प्रणाम करके बोला कि 'हे श्रावक! तुझे धन्य है। माया रूपी पृथ्वी को खोदनेवाले हल समान ऐसे परम धीर श्री महावीर स्वामी ने कहे धर्म माग में स्थिर तूं सत्य है । तेरे इस समक्ति रूप दर्पण में देखने से मुझमें भी सम्यग् दर्शन स्वरूप प्रगट हुआ है, और अनादिकाल के मिथ्यात्व का नाश हुआ है। तेरे धर्माचार्य तो श्री महावीर हैं। परंतु मेरा धर्माचार्य तो तू है। चन्दनवृक्ष की भाँति तुने परिषह सहन करके मुझे सम्यक्त्वरूपी खुशुबों दी है। ये मेरे सर्व अपराध क्षमा करना' इत्यादि वचनों से श्रेष्ठी की स्तुति करके देवता ने स्वर्ग से स्वयं के आने का कारण कह सुनाया। और बोला कि 'मैं स्वर्ग से सम्यक्त्व रहित यहाँ आया था, और उससे परिपूर्ण होकर वापिस स्वर्ग जाऊँगा। तुने बहुत अच्छा किया कि एक मिथ्यात्व रूपी बोझ हटाकर मुझे खाली कर दिया और एक सम्यक् दर्शन रूप रत्न के दान से मुझे भरपूर बना दिया।' ऐसा कहकर वह देव श्रेष्ठी को तीन प्रदक्षिणा देकर उसके उपकार का स्मरण करता हुआ स्वर्ग गया। तत्पश्चात् श्रेष्ठी कायोत्सर्ग पूरा करके वहाँ पधारे हुए श्री महावीर स्वामी को वंदन करने गया। उस समय चार पर्षदाओं के समक्ष प्रभु ने कहा, 'हे श्रावक, तुहने आज रात्रि को तीन महा भयंकर परिषहों को ठीक तरह से सहन किया और धर्मध्यान से जरा भी चलित नहीं हुआ। उस देवता ने क्रोध से अपनी सर्वशक्ति लगायी और तुमने भी आत्मवीर्य की खूशबो महकाकर
जिन शासन के चमकते हीरे • ३०१