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देवता आकाश से बोले उसे पाँच दिव्य कहा जाता है ।) यहाँ जीरण सेठ ने भावना करते करते देवदुदुंभि सुनी। उसने सोचा मुझे धिक्कार है । मैं अधन्य हूं। अभागी हूं सो प्रभु मेरे घर नहीं पधारे। इस प्रकार ध्यानभंग हुआ और मनदुःख के साथ भोजन किया।
तत्पश्चात् कोई ज्ञानी गुरु उस नगर में पधारे। उनको वंदन करके राजा ने कहा, 'मेरा नगर प्रशंसा के पात्र है क्योंकि प्रभु महावीर स्वामी को चौमासी पारणा करानेवाले महाभाग्यशाली अभिनव श्रेष्ठी यहीं पर रहते हैं। ऐसे पुण्यात्मा से मेरा नगर शोभित है । ज्ञानी गुरु बोले कि 'ऐसा कहना योग्य नहीं है। क्योंकि अभिनव सेठ ने तो द्रव्यभक्ति की मगर भावभक्ति तो जीरण श्रेष्ठी ने की हैं। इसलिये उनको अधिक पुण्यवंत मानने चाहिये । जीरण सेठ ने देवदुंदुभी की आवाज़ कुछ क्षणों के लिये सुनी नहीं होती तो वे उस श्रेणी पहुँच चुके थे कि उनको तत्काल केवलज्ञान हो जाता । राजा इस कारण जीरण सेठ की भूरी भूरी अनुमोदना करने लगे और जीरण सेठ कालानुसार बारहवें देवलोक में देव बने। वहाँ से कालक्रमानुसार मोक्ष आयेंगे।
अनमोल वचन
ज्ञान समुं धन नही, समता समु नहीं सुख । जीवित समु आश नहीं, लोभ समुं नहीं दुःख ॥
परावलम्बी सदा दुःखी । स्वावलम्बी सदा
सुखी ॥
मीठा सरखो रस नही, ज्ञान सरखो नहीं बंधु । धर्म सरखो कोई मित्र नहीं, क्रोध सरखो नहीं कोई शत्रु ॥
दुःख के कारण - अंधकार (अज्ञान) अहंकार, अधिकार, अलंकार, असहकार जो आत्मशान्ति में बाधक है ।
संसार में स्व-पर का ज्ञान होने पर यह निश्चित हो जायगा कि मेरा सो जावे नहीं, जावे सो मेरा नहीं ।
जिन शासन के चमकते हीरे ३१२