Book Title: Jinshasan Ke Chamakte Hire
Author(s): Varjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
Publisher: Varjivandas Vadilal Shah

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Page 339
________________ करा जाता था।ऐसी उसकी प्रकृति होने से गुरु महाराज ने योग्यताजानकर उसको आदेश दिया कि यदि तुझसे तपश्चर्या नहीं हो सकती तो तुझे समता ग्रहण करनी, इससे तुझे बड़ा लाभ होगा।' वह दीक्षा का पालन भली प्रकार करने लगा। परंतु हररोज सुबह में उठकर एक गडुआ (एक प्रकार का बर्तन) भरकर कुर (चावल) लाकर रोज उपयोग करे तब ही उसे होश-कोश आता था। ऐसा हररोज करने से उनका नाम कुरगडु पड गया। जिन आचार्य से कुरगडु ने दीक्षाली थी उनके गच्छ में अन्य चार साधू महातपस्वी थे।एक साधूएक माह के लगातार उपवास करते।दूसरे साधूलगातार दो माह के उपवास करते थे। तीसरे साधू तीन माह के उपवास के बाद पारणा करते थे और चौथे साधू चार माह के उपवास बिना रूके कर सकते थे। ये चारों साधु महाराज इन कुरगडु मुनि की "नित्यखाऊं' कहकर हरेराज निन्दा करते थे। परंतु कुरगडु मुनि समता रखकर सह लेते थे। उन पर तिलमात्र द्वेष नहीं करते थे। ___ एक बार शासन देवी ने आकर कुरगडु' मुनि को प्रथम वंदन किये। यह देखकर एक तपस्वी मुनिने कहा, 'तुमने प्रथम इन तपस्वी मुनियों की वंदना न करके इन तुच्छ मुनि की वंदना क्यों की?' तब शासनदेवी ने कुरगडु मुनि की स्तुति करते हुए कहा, 'मैं द्रव्य तपस्वीयों' की वंदना नहीं करती, मैंने भाव तपस्वी की वंदना की हैं। एक महापर्व के दिन प्रातःकुरगडुमुनि गोचरी लेकर आये और जैन आचार अनुसार उन्होंने हरेक साधू को बताकर कहा, 'आप में से किसीको उपयोग करने की अभिलाषा हो तो ले लें।' इतना सुनते ही तपस्वी मुनिक्रोधायमान होकर ज्यों-त्यों बोलने लगे और कहा, 'इस पर्व के दिन भी आप तप नहीं करते? धिक्कार है आपको, और हमें भी प्रयोग में लेने के लिए कहते हो?' इस प्रकार लाल पीले होकर क्रोध से 'हाख यूँ' कहकर उनके पात्र में यूंके।फिर भी कुरगडु को बिलकुल गुस्सा आया नहीं और मन से सोचने लगे, 'मैं प्रमाद में गिरा हूं। छोटा सा तप भी मैं नहीं कर सकता, धिक्कार है मुझे। ऐसे तपस्वी साधुओं की योग्य सेवा भी करता नही हूँ।आज उनके क्रोधका साधन मै बना।' आत्मनिंदा करते हुए पात्र में रहा आहार निःशंक रूप से प्रयोग करने लगे और शुक्ल ध्यान में चढ़ कर तत्काल केवलज्ञान पाया। देवता तुरंत दौडे आये और उनको सुवर्णसिंहासन पर आरुढ कराकर केवलज्ञान महोत्सव मनाने लगे। चारोंतपस्वी मुनि अचरज में पड़ गये और 'अहो! ये सच्चे भाव तपस्वी हैं। हम तो सिर्फ द्रव्य तपस्वी ही रहे।वे तैर गये।आह! धन्य है उनकी आत्मा को। ऐसा कहकर केवलज्ञानी कुरगडु मुनि से क्षमापना करने लगे। त्रिकरण शुद्धि से उनकी सच्चे भाव से क्षमापना करने से उन चारों को भी केवलज्ञान प्राप्त हुआ। . जिन शासन के चमकते होरे . ३१०

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