Book Title: Jinshasan Ke Chamakte Hire
Author(s): Varjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
Publisher: Varjivandas Vadilal Shah

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Page 343
________________ से भिक्षा दिलवा दे और कालसोरिक का कसाई का काम छुडवा दे तो नर्क से तेरा मोक्ष हो सकता है। उसके सिवा नहीं हो सकता।' यह उपदेश सुनकर श्रेणिक अपने स्थान पर गये। इसके बाद श्रेणिक ने गाँव में से कपिला दासी को बुलवाया और उससे माँग की, 'हे भद्रे! तूं साधुओं को श्रद्धा से भिक्षा दे। मैं तूझे धन देकर न्याल कर दूंगा।' कपिला बोली, 'कदापि मुझे पूरी सुवर्णमय करो या मुझे मार डालो तो भी मैं ऐसा कृत्य नहीं करूंगी।' तत्पश्चात् राजा ने कालसौरीक को बुलाकर कहा, 'यदि तूं यह कसाइपना छोड दे तो मैं तुझे बहुत द्रव्य दूंगा, क्योंकि तूं भी धन लोभ के कारण कसाई बना है। कालसौरिक बोला, 'इस कसाई के काम में क्या दोष है? जिससे अनेक मनुष्यों के पेट भरे जाते हैं ऐसे कसाई के धंधे को मैं कदापि नहीं छोडूंगा। यह सुनकर राजा ने उसे एक रात्रि-दिन कुएं में डाल दिया और कहा, 'अब तूं कसाई का व्यापार किस प्रकार करेगा?' तत्पश्चात् राजा श्रेणिक ने भगवंत के सम्मुख जाकर कहा, 'हे स्वामी! मैंने कालसौरीक को एक रात्रि - दिन तक कसाई कार्य छुडवाया है।' प्रभु बोले, 'हे राजन् ! उसने अंधकूप में भी कोयले से भैंसे बनाकर पाँचसौं भैंसे मरवाये हैं।' श्रेणिक ने तत्काल जाकर देखा तो उसी तरह था। उसे बड़ा उद्वेग हुआ कि 'मेरे पूर्व किये कर्मों को धिक्कार है।' एसे दुष्कर्म के कारण भगवान की वाणी अन्यथा होगी नहीं।' कालक्रमानुसार श्रेणिक राजा वृद्ध हुए। उनके पुत्र अभयकुमार ने दीक्षा ली। इस कारण मौका अच्छा मिला है यो समझकर श्रेणिक के दूसरे पुत्र कुणिक ने अपने काल वगैरह दस बंधुओं को एकत्र करके कहा, "पिता वृद्ध हुए पर राज्य छोडते नहीं है। हमारे ज्येष्ठ बंधु अभयकुमार धन्य हैं कि युवा होने पर भी राज्यलक्ष्मी को छोड़ दी। हमारे विषयांध पिता तो इस समय पर भी राज्य भोगने में कुछ भी देखते नहीं है। इसलिये आज उनको बंदी बनाकर राज्य ग्रहण कर लें।' ऐसा सोचकर उसने पिता को एक रस्से से बांधकर पिंजरे में बंद कर दिया। उनको खान पान भी नहीं देता था। उलटा वह पापी कुणिक प्रतिदिन सवेरे और शाम को सौं सौं कोड़ें मरवाता था। कुणिक श्रेणिक के पास किसीको जाने नहीं देता था। सिर्फ माता चेल्लणा को वह रोक नहीं सकता था। रानी चेल्लणा सर के बाल अच्छी तरह धोकर उसमें पुष्प गुच्छ जिन शासन के चमकते हीरे • ३१४

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