Book Title: Jinshasan Ke Chamakte Hire
Author(s): Varjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
Publisher: Varjivandas Vadilal Shah

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Page 337
________________ पिता को कहा, 'गुरुजी मैं ब्रह्मचर्य पालने में समर्थ नहीं हूँ' ऐसा कहकर उसने गोपी और कृष्ण लीला की प्रशंसा की। यह सुनकर पिता ने सोचा, 'वाकई, यह पुत्र सर्वथा चारित्र पालने में असमर्थ है। मोहवश इतने समय तक उसने जो माँगा वह दिया। परंतु यह माँग तो किसी भी तरह से स्वीकृत नहीं की जा सकती। यह यदि मैं स्वीकृत करकर उसे अनुमति दूं तो वह तो नर्क मे जायेगा, मैं भी नर्क मे जाऊँगा।' इस जीव को अनंता भवो में अनंत पुत्र हुए है तो उस पर किसलिये मोह रखना चाहिये? इत्यादि विचार करके क्षुल्लक मुनि को उन्होंने गच्छ बाहर निकाल दिया। इस प्रकार पिता से दूर होते ही अपनी मर्जी अनुसार जीवन बीताने लगा। क्रमानुसार वह अन्य भव में भैंसा बना और उसके पिता मुनि स्वर्गलोक में देवता बने। देवता ने अवधिज्ञान से पुत्र को भैंसा बना देखकर सार्थवाह का रूप धारण करके उस भैंसे को खरीदा और उसका पानी की मशके भर लाने के लिये उपयोग करने लगा। उबड़ खाबड़ मार्ग पर चलते हुए भैंसा खडा रहता तब सार्थवाह कोडे से कडी मार मारता, तब भैंसा जोरो से चीखता तब सार्थवाह भी जोरो से चिल्लाता, 'अरे! क्यों चीखता है? पूर्व जन्म में मैं यूं करने में शक्तिमान नहीं हूं, त्यों करने में शक्तिमान नहीं हूं - यों बारबार कहता था, अब कह, भुगत तेरे कर्मो के फल।' इस प्रकार कहते हुए जोर से कोडा मारा। कोडे की मार और सार्थवाह के ऐसे वचन सुनकर भैंसे को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। पूर्व भव नजर समक्ष आया और उसके नेत्र में से अश्रुपात करते हुए सोचने लगा, 'पूर्व भव में पिता के कहे अनुसार मैने चारित्र पालन नहीं किया और महामुश्किल से प्राप्त मनुष्य भव मैंने गँवा दिया। धिक्कार है मुझे। मेरे कर्मों से मैं भैंसा बना हूँ।' भैंसे को ज्ञान हुआ जानकर देवता ने कहा, 'मैं तेरे पूर्व भव का पिता हूँ और तुझे पूर्वभव का स्मरण दिलाने आया हूँ। अभी भी यदि शुभगति की इच्छा हो तो अनशन ग्रहण कर।' यह सुनकर भैंसे ने अनशन ग्रहण किया और वहाँ से मरकर वैमानिक देवता बना। इसलिये लिये हुए व्रत का शुद्धतापूर्वक पालन करना और क्षुल्लक मुनि की भाँति दूसरे दर्शन के आचार देखकर उनकी आकांक्षा करनी नहीं। श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा वही सत्य है, उसमें किसी प्रकार से शंका न करनी। जिन शासन के चमकते हीरे • ३०८

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