Book Title: Jinshasan Ke Chamakte Hire
Author(s): Varjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
Publisher: Varjivandas Vadilal Shah

View full book text
Previous | Next

Page 334
________________ १०२-शैलक राजर्षि एवं पंथक मुनि शैलक राजर्षि पांचसौं शिष्यों के साथ विचर रहे थे। ज्ञान, ध्यान के साथ वे उग्र तपश्चर्या करते थे। लगातार आयंबील का तप और रूखासूखा भोजन करने से, उनके शरीर में 'दाहज्वर' का रोग हुआ। परंतु उनको तो शरीर पर ममत्व ही नहीं था। रोग होन पर भी वे इलाज नहीं कराते थे। ___पांचसौं शिष्यों के परिवार के साथ वे शेलकपुर पधारे, जहाँ राजा - मंडक राज्य करते थे। वे एक दिन आचार्य का दर्शन करने आये। दर्शन वंदन करके उन्होंने आचार्य देव की कुशलता पूछी और ज्ञात कर लिया कि गुरुदेव दाहज्वर से पीड़ीत हैं और शरीर निरा कृश बन चुका है। राजा ने आचार्यश्री को बिनती की, 'हे कृपावंत! आप यहाँ स्थिरता करें। रोग की चिकित्सा करने का मुझे लाभ दीजिये। आप निरोगी होगें तो अनेक जीवों को उपदेश द्वारा उपकारी होंगे। इसलिये मेरी प्रार्थना स्वीकारे।' मंडूक राजा की आग्रहपूर्वक की बिनती शैलकाचार्यने स्वीकृत कर राजा की यानशाला में स्थिरता की । (रथ वगैरह रखने की जगह को यानशाला कहते हैं) - कुशल बैद्यो द्वारा आचार्य श्री की चिकित्सा प्रारंभ हुई, परंतु कुछ दिन की चिकित्सा के बाद कुछ फर्क न दिखा तो बैद्यो ने मुनियों को कभी भी खपता नहीं हो परंतु रोग निवारण के लिये 'मद्यप्रान' करने के लिए कहा। हरेक नियम का अपवाद हो सकता है ऐसा समझकर आचार्यश्री ने दवाओं के साथ मद्यपान करना शुरू किया। शरीर निरोगी बनता गया परंतु कमजोरी तो थी। राज्य के रसोईघर से घी - दूध के साथ साथ पुष्टिकारक व्यंजन भी आने लगे। मद्यपान के साथ ये स्वादिष्ट व्यंजन और पूर्ण आराम के कारण शरीर आलसी बनता गया। धीरे धीरे प्रतिक्रमण पडिलेहण भी छूटता गया। स्वादिष्ट व्यंजन खाना, मद्यपान करना और आलस के कारण सोना-ऐसा नित्यक्रम हो गया शैलकाचार्य का। मद्यपान वाकई में अच्छे-अच्छों का पतन कराता है। आचार्य तो भूल गये कि 'मैं साधू हूँ। मैं पांचसौं शिष्यों का गुरु हूँ। भूल गये कि मैं जैन धर्म का आचार्य हूँ। शिष्य सब सोचने लगे कि अब क्या करना। साधारण संयोगों में गुरु जिन शासन के चमकते हीरे • ३०५

Loading...

Page Navigation
1 ... 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356