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गिर पड़े। श्री नागकेतु को चिंता हुई कि, 'यह शिला यदि नगरी पर गिरेगी तो महा अनर्थ होगा। नगरी के साथ जिनमंदिर भी साफ हो जायेगा । मैं जीवित होऊँ और श्री संघ के श्रीजिनमंदिर का विद्धंश हो जावे यह कैसे देख सकूँ ?' ऐसी चिंता होने से श्री नागकेतु जिनप्रासाद के शिखर पर चढ़ गया और आकाश में रही शिला की ओर हाथ दिया।
श्री नागकेतु के हाथ में कितना बल होवे ? परंतु वह ताकात उनके हाथ की न थी, वह ताकत उनके प्रबल पुण्योदय की थी। उन्होंने जो तप किया था उस तप ने उनको ऐसी शक्ति का स्वामी बना दिया था। उनकी इस शक्ति को वह व्यंतर सहन न कर सका। इसलिये व्यंतर ने तुरंत अपनी रची हुई शिला को स्वयं ही समेट लिया और आकर नागकेतु के चरणों में गिर पड़ा। श्री नागकेतु के कहने से उस व्यंतर ने राजा को भी निरुपद्रव किया।
एक बार श्री नागकेतु भगवान की पूजा कर रहे थे और पुष्प से भरी पूजा की थाली अपने हाथ में थी । उसमें एक फूल में रहे सर्प ने उन्हें काटा । सर्प के काटने पर भी नागकेतु जरा से भी व्यग्र न हुए। परंतु सर्प काटा है यह जानकर ध्यानारूढ बने । ऐसे ध्यानारूढ बने कि क्षपक श्रेणी में पहुँचे और उन्होंने केवलज्ञान पाया। उस समय शासनदेवी ने आकर उन्हें मुनिवेष अर्पण किया और उस वेष को धरकर केवलज्ञानी नागकेतु मुनिश्वर विहरने लगे । कालानुसार आयुष्य पूर्ण होते ही वे मोक्ष पधारे।
को मूल है,
दया धर्म
पाप
मूल अभिमान
कहे तुलसी दया कबहु न छोडिये, जब तक घट में प्राण ।
जिन शासन के चमकते हीरे • २९०