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-मरवीलपुत्र गोशाला
राजगृही नगरी के नालंदा नामक स्थान पर मंख और सुभद्रा का पुत्र गोशाला था। वह बहुल नामक ब्राह्मण की गोशाला में जन्म था।
यह गोशाला एक बार प्रभु महावीर के पास आया। वहाँ भगवान महावीर को मासक्षमण के पारणे पर विजय नामक सेठ ने सुन्दर आहार गोचरी मे दिया। यह देखकर गोशाला को लगा कि 'यदि मैं इनका शिष्य बन जाऊँ तो खाने-पीने का खूब मजा आयेगा।' उसने भगवान को कहा, 'मैं आपका शिष्य हूँ।' अपने आप गोशाला भगवान महावीर का शिष्य बन गया। इस प्रकार चार मासक्षमण के पारणे तक भगवान के साथ रहा, तत्पश्चात् उनसे अलग हो गया।
अलग होने के छ: माह के बाद पुनः गोशाले का मिलाप प्रभु से हुआ।
विहार करते करते प्रभु कूर्म गाँव गये।वहाँ वैश्यायन तापस ने आतापना ग्रहण करने के लिये अपनी जटा खुल्ली रखी थी, उसमें जूं देखकर गोशाले ने 'यूकाशय्यातर' (जूंओं को आश्रय देनेवाला) कहकर उसकी मज़ाक उडाई। इस प्रकार जहाँ-तहाँ वह अशिष्ट आचरण करता था।
वैश्यायन तापस से यह मज़ाक सहन न हुआ। उस तापस ने क्रोधायमान होकर गोशाले पर तेजोलेश्या (अग्निज्वाला) छोड़ी। उस समय पास खड़े श्री वीर प्रभु को लगा, 'कुछ भी है, मगर यह मेरा आश्रित तो है। इस कारण दयारस के सागर प्रभु ने तेजोलेश्या के सामने शीतलेश्या (शीतल अंगारवायु) छोड़कर तेजोलेश्या को ठण्डा कर दिया और गोशाले को बचा लिया। गोशाले ने प्रभु को तेजोलेश्या की सिद्धि का उपाय पूछा, अवश्यभावि भाव के योग से सर्प को दूध पिलाने की भाँति तेजोलेश्या की विधि प्रभु ने गोशाला को सिखायी।
भगवान ने कहा, 'सूर्य की धूप में बैठना, छठू का तप करना, अडद (सिर्फ नाखून में समाये उतने) के दलहन तथा गर्म पानी की एक अंजलि से पारणा करना। इस प्रकार करनेवाले को छ: मास के अंत में तेजोलेश्या प्राप्त होती है। यह विधि जानकर गोशाला प्रभु से अलग हुआ। गोशाले ने श्रावस्ती नगरी में जाकर प्रभु के बताये उपाय अनुसार कुम्हार के बाड़े में रहकर तेजोलेश्या की साधना की और श्री पार्श्वनाथ प्रभु के शिथिलाचारी शिष्यों से अष्टांग निमित्त का जानकर भी हुआ।
जिन शासन के चमकते हीरे • २९१