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_ 'हे गुरुदेव! यह राज्य में आपको समर्पित करता हूँ। आप इसका स्वीकार करें और मुझे ऋणमुक्त करें।
आर्यसुहस्ति ने संप्रति को कहा : 'महानुभाव! यह तेरा सौजन्य है कि तूं तेरा पूरा राज्य मुझे देने के लिये तत्पर हुआ है। परंतु जैन मुनि अकिंचन होते हैं। वे अपने पास किसी भी प्रकार की संपत्ति या द्रव्य रखते नहीं है।'
सम्राट संप्रति को 'जैन साधू संपत्ति रख सकते नहीं है' इस बात का ज्ञान न था। पूर्व भव में भी उसकी दीक्षा केवल आधे दिन की थी। इस कारण उस भव में भी इस बारे में उसका ज्ञान सीमित था।
संप्रति के हृदय में गुरुदेव के प्रति उत्कृष्ठ समर्पण भाव छा गया था। यह था कृतज्ञता गुण का आविर्भाव।
आचार्यश्री ने सम्राट संप्रति को जैन धर्म का ज्ञाता बनाया। वे महाआराधक और महान प्रभावक बने। सम्राट संप्रति ने अपने जीवनकाल मे सवा लाख जिन मंदिर बनवाये और सवा करोड़ जिनमूर्तियाँ भरवायी और अहिंसा का खूब प्रचार किया।
गुरुदेव के उपकारों को भूलना नहीं, यही इस कथा का सार है।
तीन चीजों को भूलो मत - उपदेशक, उपकार, उदारता। तीन चीजों को मान दो, - न्याय, माता-पिता, बुजुर्ग। तीन चीजों से महान बनो - धीर-गंभीर-सदाचार। तीन चीजों के लिए प्राण अर्पण करो - देश-धर्म-मित्र॥ तीन चीजों के लिए अभिमान न करो - धन, विद्या, सौन्दर्य।
जिन शासन के चमकते हीरे • २९७