Book Title: Jinshasan Ke Chamakte Hire
Author(s): Varjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
Publisher: Varjivandas Vadilal Shah

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Page 316
________________ ९६ -श्री नागकेतु पूर्वभव में नागकेतु कोई एक वणिक का पुत्र था। बचपन में ही उसकी माता मर गई और उसके पिता अन्य कन्या से ब्याहे । उस नयी आयी स्त्री को उसकी सौत का पुत्र काँटे की तरह चुभने लगा। और इस कारण कई तरह से उसे पीडा देने लगी। पूरा खाना न देती। घरकाम खूब कराती और मूढ मार मारती थी। लम्बे समय तक ऐसी पीडा सहते सहते वह त्रस्त हो गया और घर छोड़कर अन्य जगह भाग जाने के लिये एक सायं घर से भाग निकला। भागते समय नगर के बाहर निकलने से पूर्व जिनेश्वर के दर्शन करने एक मंदिर में जाकर स्तुति वंदना की और उसके चबूतरे पर बैठा था। सद्भाग्य से उसका एक मित्र मंदिर में से बाहर निकला और मित्र को निराश वदन से बैठा हुआ देखकर उसको पूछा, 'क्यों भाई! किस चिंता में है?' मित्र ने जवाब दिया, 'कुछ कहा जाय ऐसा नहीं है, अपार दुखियारा हूँ और अब त्रस्त होकर घर से भाग जाने निकला हूँ।' श्रावक मित्र ने उसे सांत्वना देते हुए कहा : 'भाई, घबराना मत। धर्म से सब कुछ ठीक हो जाता है। तप से कई कर्म नाश हो जाते हैं। पूर्व भव में तूने तप किया नहीं है, इसलिए तू दुःखी होता है, इसलिए तूं एक अठुम कर।' आगामी वर्ष पर्युषण पर्व आए, तब अठ्ठम तप करने का निश्चय किया; सो बाहरगाँव न भागते हुए रात्रि को वापिस घर आया। घर का दरवाजा तो बंद था इस कारण घर के बाहर घास की गंजी थी उस पर वह सो गया। परंतु मन में अठ्ठम तप जरूर करूंगा ऐसी भावना करता रहा। अपर माता ने खिड़की में से देख लिया कि यह शल्य आज ठीक पकड़ में आया है। गंजी को आग लगा दूं तो यह मर जायेगा, और लम्बे समय से इसका काँटा निकालने की इच्छा है जो आज पूरी हो जायेगी। ऐसा विचार करके घोर रात्रि में घास की गंजी को आग लगा दी। बाहर का पवन तथा अग्नि का साथ... कुछ ही देर में गंजी चारोंओर से जल गई और वह वणिकपुत्र जिंदा ही जलकर राख हो गया। परंतु मरते मरते भी अठ्ठम तप करना है ऐसी भावना आखिरी - जिन शासन के चमकते हीरे • २८७

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