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और मदनरेखा को वैताढ्य पर्वत पर ले गया। वहाँ मदनरेखा को रुदन का कारण पूछा । मदनरेखा ने सब हकीकत सुनाते हुए कहा : 'जिस अटवी पर से तूं मुझे यहाँ लाया है, वहाँ मैंने पुत्र को जन्म दिया है। उस पुत्र को तरु की छाया में रखकर मैं पर गई थी। वहाँ हस्ति ने मुझे उछाल फेंका, तूने मुझे थाम लिया और तेरे विमान में बिठा दिया। पुत्र मेरे बगैर मृत्यु पायेगा। या तो मेरे बालक को यहाँ ला दो अथवा मुझे वहाँ पहुँचा दो । '
विद्याधर ने कहा, 'यदि तूं मुझे तेरे भरतार के रूप में स्वीकार करेगी तो मैं तेरा किंकर बन कर रहूँगा ।'
मदनरेखा सोचकर बोली, 'तूं मेरे पुत्र को यहाँ ले आ ।' विद्याधर ने कहा, 'मैं वैताढ्य पर्वत पर स्थित, रत्नावह नगर के मणिचूड विद्याधर का पुत्र हूँ। मेरा नाम मणिप्रभ है । मेरे पिता ने मुझे राज सौंपकर संयम ग्रहण किया है। मेरे पिता नंदीश्वर द्वीप के चैत्यों को वंदन करने गये हैं। उनसे मिलने मैं नंदीश्वर जा रहा था, तूं मुझे मिल गई, तो अब तूं सर्व विद्याधरों की स्वामिनी बन । मैंने तेरे पुत्र का स्वरूप प्रज्ञप्ति विद्या से जान लिया है। तेरे छोड़े हुए पुत्र के पास मिथिला नगरी के पद्मरथ . राजा अश्व दोड़ाते हुए पहुँच चुके थे, तेरे पुत्र के नगर में लेजाकर अपनी प्रिया पुष्पमाला को सौंप दिया है। अब वह उसे अपने पुत्र की भाँति पाल रही है। अब उसकी फिक्र न करते हुए मेरी बात का स्वीकार करके, मेरी पत्नी बनकर मेरे राज्य की स्वामीनी बन ।' रानी मदनरेखा ने सोचा, 'आह ! मेरे कर्म ही बाधारूप हैं | दुख पर दुख आ रहे हैं । शील रक्षण का उपाय ढूँढना महत्त्वपूर्ण है। कोई बहाना ढूंढकर थोड़ी सी ढील करके समय बीताना चाहिये।' ऐसा सोचकर उसने विद्याधर को कहा, 'प्रथम तो तूं मुझे नंदीश्वर द्वीप के दर्शन करा दे। वहाँ सर्व देवों को नमस्कार वदंन करूंगी बाद में तूं कहेगा वैसे करूंगी।' ऐसा सुनकर विद्याधर खुश हो गया और अपनी विद्या के बल से उसे शीघ्र ही नंदीश्वर तीर्थ पर ले गया। वहाँ मदनरेखा तथा मणिप्रभ विद्याधर ने शाश्वत चैत्यो को प्रणाम किया और विद्याधर के पिता मणिचूड मुनिश्वर के पास जाकर उन्हें नमस्कार करके यथोचित धर्म सुनने के लिए बैठे। मुनि पुत्र अकार्य करना सोच रहा है - यूं जानकर बोले, 'तुम्हें कुमार्ग छोड़ना चाहिये। क्योंकि परस्त्रीगमन जैसे कुमार्ग पर जाने से नरक में ही जाना पड़ता है वैसे स्त्री को भी परपुरुष का सेवन करने से अवश्य नरक में जाना पड़ता है।' अपने पितामुनि के ऐसे धर्मवचन सुनकर मणिप्रभ की अक्ल ठिकाने आ गई और अहो...! मैंने कैसे हलके विचार किये। खड़े होकर मदनरेखा की क्षमा माँगी
जिन शासन के चमकते हीरे ६७