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दीक्षा लूंगी।' तत्पश्चात दंपती ने गुरु के पास जाकर जीवनपर्यंत सदा के लिये ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया और भेंट-उपहार वगैरह अर्पण करके श्रीसंघ का सत्कार किया। इस दंपती जैसे बाल ब्रह्मचारी हमने तो कभी सूने नहीं है।'
उपरोक्त वृत्तांत सुनकर शिवशंकर जिनदास व सौभाग्यदेवी की विशेष प्रकार से सेवाभक्ति करके अपने गाँव लौटा। ऐसे शीलवान दंपती की भोजन आदि की भक्ति का लाभ प्राप्त किया और इसके लिए मार्ग दिखानेवाले धर्मदास मुनि को परम उपकारी माना।
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हे भगवान ! मैं बहुत भल गया हे भगवान! मैं बहुत भूल गया, मैंने आपके अमूल्य वचनों को लक्ष्य में लिये नहीं। मैंने आपके कहे अनुपम तत्व का विचार किया नहीं। तुम्हारे प्रणीत किये हुए उत्तम शील का सेवन नहीं किया। तुम्हारे कहे दया, शांति, क्षमा और पवित्रता को मैंने पहचाना नहीं। हे भगवान ! मैं भूला, भटका, बेकार घूमा फिरा और अनंत संसार की विटम्बना में गिरा हूँ। मैं पापी हूँ।। मैं खूब मदोन्मत व कर्म धूलि से मलिन बना हूँ। हे परमात्मा ! तुम्हारे कहे | तत्त्व के बिना मेरा मोक्ष नहीं है। मैं निरंतर प्रपंच में पडा हूँ। अज्ञानता
से अंध हुआ हूँ। मुझमें विवेकशक्ति नहीं है और मैं मूढ़ हूँ, निराश्रित हूँ, | अनाथ हूँ। निरागी परमात्मा ! अब मैं आपकी, आपके धर्म की और आपके मुनिकी शरण ग्रहण करता हूँ। मेरे अपराध क्षय होकर उन सब पाप से मुक्त हो जाऊं ऐसी मेरी अभिलाषा है। पूर्व मैंने किये हुए पापों का अब मैं पश्चात्ताप करता हूँ। ज्यों ज्यों मैं सूक्ष्म विचार में गहरा डूब जाता हैं त्यों त्यों तुम्हारे तत्त्व के चमत्कार मेरे स्वरूप को प्रकाशित करते हैं। आप निरागी, निर्विकारी सचिदानंद स्वरूप, सहजानंदी, अनंतज्ञानी, अनंतदर्शी
और त्रैलोक्य प्रकाशक हो। मैं मात्र मेरे हित के कारण आपकी साक्षी में क्षमा चाहता हूँ। एक पल भी आपके कहे तत्त्व की शंका न हो, मैं आप के कहे मार्ग में अहोरात्र ही रहूँ। यही मेरी आकांक्षा और वृत्ति हो। हे सर्वज्ञ भगवन ! आपको मैं विशेष क्या कहूँ ? आपसे कुछ अनजाना नहीं है। मात्र पश्चाताप से मैं कर्मजन्य पाप की क्षमा चाहता हूँ।
___ ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
जिन शासन के चमकते हीरे . १३७