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जब भगवंत चंपानगर में आये तब जमाली उनके पास आकर कहने लगा, 'एक मेरे सिवा आपके सर्व शिष्य छद्मस्थ है और मैं स्वयं ही केवली हूँ, सर्वज्ञ हूँ।' तब गौतम स्वामी ने कहा, 'ऐसा असंभव बोल मत क्योंकि भगवंत का वचन कभी भी स्खलायमान होता ही नहीं। यदि तू केवली है तो मेरे प्रश्न का उत्तर दे : 'यह लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? ये जीव शाश्वत है या अशाश्वत है ?' (नित्य हैं या अनित्य)' इनका उत्तर नहीं मिलने से वह बंदी पतित सर्प की भाँति मौन हो गया। भगवंत ने कहा, 'हे जमाली ! ये हमारे कई छद्मस्थ शिष्य हैं वे भी इसका उत्तर दे सकते हैं कि था, होगा और है - ऐसे तीन काल की अपेक्षा से यह लोक शाश्वत है व उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल की अपेक्षा से यह लोक अशाश्वत है। द्रव्यरूप से यह जीव शाश्वत है और नर, नारक, तिर्यंच आदि पर्याय की अपेक्षा से ये जीव अशाश्वत हैं।' १
ऐसे वचन प्रभु ने कहे फिर भी उसे नहीं मानकर कई उत्सूत्रों की प्ररूपणा करके मिथ्याभिनिवेषी मिथ्यात्व से लोगों को बहकाते हुए, अंत में अनशन करके आलोचना लिये बगैर व उस पाप की क्षमायाचना करे बगैर उसने छठे लांतक देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुआ।
__जमाली को मृत्यु पाया जानकर गौतम ने श्री वीर प्रभु की वंदना करके पूछा, 'हे स्वामी ! वह महातपस्वी जमाली किस गति को पाया है ?' प्रभु ने कहा, 'वह तपोधन जमालि लांतक देवलोक में तेरह सागरोपम आयुष्यवाला किल्विषिक देवता बना है।' गौतम ने दुबारा पूछा कि उसने महा उग्र तप किया था तो भी वह किल्विषिक देव क्यों हुआ? वह वहाँ से कहाँ जायेगा?' प्रभु ने कहा, 'जो प्राणी उत्तम आचारवाले धर्मगुरु (आचार्य), उपाध्याय, कुल, गण तथा संघ के विरोधी हो, वे चाहे जितनी तपस्या करे तो भी किल्विषिकादि निम्न जाति के देवता होते हैं। जमाली भी इस दोष से ही किल्विषिक देव हुआ है। वहाँ से वह पाँच पाँच भव तिर्यंच, मनुष्य व नारकी में भटक भटक कर बोधिबीज प्राप्त करके अंत में नितदि पायेगा। इसलिए किसी भी प्राणी को धर्माचार्य वगैरह का विरोधी नहीं बनता चाहिये।'
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असार इस संसार में, खेलते सब स्वार्थ में, इस दिव्य जीवन को पाकर, त लगाना परमार्थ में
जिन शासन के चमकते हीरे • १५८