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है, इसलिये मुझे रूदन आ जाता है।' यह सुनकर धन्य ने मज़ाक में कहा, 'जो ऐसा करता है वह तो लोमड़ी की की भाँति डरपोक माना जाता है । यदि व्रत लेना है तो एक एक क्यों ? मर्द की भाँति एकसाथ छोड़कर व्रत लेना चाहिये। इसलिए तेरा भाई तो सत्त्वहीन लगता है।' यह सुनकर दूसरी स्त्रीयाँ हँसकर बोली, 'हे नाथ ! यह व्रत लेना सरल है तो आप क्यों नहीं लेते ?'
धन्य बोला : अरे ! मुझे व्रत तो लेना ही है पर तुम सब विघ्नरूप थी, आज पुण्यबल से अनुकूल हो गई, मैं भी अब शीघ्र व्रत लूंगा।' वे बोली, 'प्राणेश ! प्रसन्न हो, हम तो मज़ाक कर रही थी।' स्त्रियों के ऐसे वचन के उत्तर में स्त्री और द्रव्य सर्व अनित्य है, इसलिये निरंतर त्याग करने योग्य हैं, इसलिए मैं तो दीक्षा अवश्य
गूंगा।' इस प्रकार बोलते हुए धन्य तुरंत खड़ा हो गया। हम भी आपके पीछे दीक्षा लेंगी' सर्व स्त्रियों ने कहा। अपनी आत्मा को धन्य माननेवाले महा मनस्वी धन्य ने उनको सम्मति दी।
प्रभु महावीर उस समय वैभारगिरि पर पधारे । दीनजनों को बहुत दान देकर स्त्रियों के साथ धन्य महावीर प्रभु से दीक्षा लेने चल पड़ा। मार्ग में शालिभद्र का मकान आया तो उसे आवाज़ देकर बुलाया और कहा : अरे मित्र !व्रत लेना उसमें धीरे धीरे क्या? छोड़ना हो तो एकसाथ ! चल, मैं सब स्त्रियों को छोड़कर दीक्षा ग्रहण करने जा रहा हूँ। दीक्षा लेनी ही हो तो चल मेरे साथ । शालिभद्र तो तैयार ही था। वहाँ से सीधे सब भगवान महावीर के पास पधारे और दीक्षा ग्रहण की।
दोनों उग्र तपस्या करने लगे। माह, दो माह, तीन माह और चार माह के उपवास करते करते मांस व रुधिर शरीरवाले प्रभु महावीर के साथ विहार करते करते वे अपनी जन्मभूमि राजगृही पधारे । अपने मासक्षमण के पारणे के दिन दोनों महात्मा भिक्षा लेने जाने की आज्ञा लेने प्रभु के पास आये। प्रभु ने शालिभद्र को कहा, 'आज तुम्हारी माता से मिले आहार से तुम्हारी पारणा होगा ऐसी मेरी इच्छा है।' यह सुनकर शालिभद्र और धन्यमुनि दोनों नगर में गये। दोनों मुनि भद्रा के गृहद्वार के समीप आकर खड़े रहे। परंतु तपस्या से अत्यंत कृशता के कारण किसीके पहचानने में न आये। प्रभु के साथ शालिभद्र और धन्य भी पधारे हैं ऐसा जानकर भद्रा माता उन्हें वंदना करने जाने की तैयारी कर रही थी इसलिये उसका भी ध्यान उन पर गया नहीं। दोनों मुनि थोड़ा समय खडे रहे और वापस लौट चले। वे नगर के दरवाजे से बाहर निकल रहे थे उतने में शालीभद्र की पूर्वजन्म की माता नगर में दही-घी बेचने के लिए सामने आती हुई दिखी। शालिभद्रको देखकर उसके स्तन में से पय बहने लगा। दोनों मुनियों के चरणों में वन्दन करके उसने भक्तिपूर्वक दहीं की भिक्षा दी। वे दोनों प्रभु के पास आये और गोचरी भेंट की।अंजलि छिडकी
जिन शासन के चमकते हीरे . १६३