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कहा : 'डर मत! इस पास के भरूच नगर में राज्यसभा है। वहाँ कई - पंडित भी हैं, हम यहाँ बाद करेंगे और उसमें जो हो वह सही।' ऐसा कहकर वे भरूच गये। वहाँ राज्यसभा में भी वृद्धवादी की ही जीत हुई और सिद्धसेन हारा। सत्य प्रतिज्ञावाले सिद्धसेन ने वृद्धवादी से जैनधर्म की दीक्षा ली। योग्यता होने से उसने 'दिवाकर' नामका बिरुद प्राप्त किया, जिससे गुरु ने उसे आचार्यपद समर्पित किया।
इसके बाद वे कई जीवों को प्रतिबोध देते हुए उज्जैन पधारे। इससे नगर में "ये तो सर्वज्ञ पुत्र' है" - ऐसा घोष होने लगा। विक्रमादित्य ने उनका सर्वज्ञपना देखने के लिए पास आकर मन से नमस्कार किया। सिद्धसेनसूरी ने ज्ञान से जानकर शीघ्र ही सब सुने वैसे 'धर्मलाभ' दिया। विक्रमादित्य बोले, 'नमस्कार किये बिना' धर्मलाभ क्यों देते हो। हमारा धर्मलाभ बेकार नहीं है, देख सुन।''दीर्घायु हो' ऐसे आशीर्वाद देवे तो कुछ योग्य नहीं लगता क्योंकि वह तो नारकी के जंतुओं में भी हैं। आपको कई पुत्र हो' ऐसा कहे वह भी ठीक नहीं है क्योंकि वह तो मुर्गियों को बच्चे भी होते हैं जिससे उन्हें क्या सुख है? इसलिये सर्व सुख देनेवाला यह 'धर्मलाभ' ही आपको सुखदायी होगा।' इससे राजा ने सर्वज्ञपना स्वीकार किया। तुष्ट होकर उन्हों ने एक करोड़ सुवर्णमुद्राएँ भेट की परंतु निस्पृही होने से उन्होंने उस द्रव्य का स्वीकार नहीं किया। श्रावकों ने इसे झीर्णोद्धार व लोगों को कर्जे से मुक्ति दिलाने वगैरह कार्य में खर्च किया। ___ सिद्धसेन दिवाकर वहाँ से बिचरते हुए चित्तोड गये। वहाँ एक स्तंभ था। उसमें पूर्व निषेधित पुस्तक छुपाये हुए थे। उन्हें पुस्तक पढने की इच्छा हुई परंतु वह स्तंभ ऐसा था कि जिसे अग्नि, पानी, शस्त्र (औजार) कोई भी भेद सके या तोड सके नहीं इस प्रकार उसकी परत औषधि से वज्रमय बनायी हुई थी। इससे उन्होंने बैठकर सुगंधी लेकर उन्होंने औषधिया पहचानी। उन्होंने प्रतिऔषधियाँ (विरोधी औषधियाँ) से नवपल्लवित करके स्तंभ खोला। उसमें कई चमत्कारिक ग्रंथ थे। प्रथम एक पुस्तक हाथ में लेकर वे पढ़ने लगे। उसके पहले पन्ने पर दो विद्याएँ थी। उसमें पहली विद्या थी सरसव विद्या । सरसव पानी में डालने से घोड़े उत्पन्न किये जा सकें ऐसी विद्या देखी। दूसरी चूर्णयोग से सुवर्ण बनाने की क्रिया थी। ये दोनों विद्या पढ़ने के बाद आगे-पढ़ने पर शासनदेवी ने निषेध किया और पुस्तक हाथ में से खींच लिया, अपितु स्तंभ भी वापिस वज्रमय होकर बंद हो गया। उदास होकर उन्होंने वहाँ से विहार किया। आगे चलते हुए वे कुमारपुर आये। वहाँ देवपाल नामक राजा को नमस्कार करके बिनती की, 'मेरी सीमाओं के राजा मेरा
जिन शासन के चमकते हीरे • २३४