Book Title: Jinshasan Ke Chamakte Hire
Author(s): Varjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
Publisher: Varjivandas Vadilal Shah

View full book text
Previous | Next

Page 304
________________ ९४ श्री जंबू स्वामी पूर्व भवदत्त और भवदेव नामक दो भाई थे । बड़े भाई भवदत्त ने चारित्र ग्रहण किया था। उसने अपने छोटे भाई भवदेव को समझाकर नवविवाहित नागीला का त्याग करवाकर दीक्षा दिलवाई थी । भवदत्त मुनि के स्वर्ग जाने के बाद भवदेव पुनः नागीला के संग संसार भोगने के विचार से अपने गाँव आया परंतु नागीला के उपदेश से चारित्र में स्थिर रहा। उस भवदेव का जीव विद्युत्माली नामक देव बना। उसी जीव ने ऋषभ नामक श्रेष्ठि की धारिणी नामक स्त्री के पुत्र रूप में जन्म लिया और उसका नाम जंबू रखा गया । क्रमानुसार वह युवा हुआ। एक बार वैभारगिरि पर श्री सुधर्मास्वामी पधारे। उनको वंदना करने जंबूकुमार गया। उनकी देशना सुनकर वापिस लौट रहा था उस समय गाँव के दरवाजे में घूसते ही शत्रु को मारने के लिये दरवाजे पर आधा लटकते हुए धरन के भारी लकड़े को देखकर उसने सोचा कि यह भारी लकड़ा सिर पर गिरे तो? इसलिए मैं वापिस लौटकर सुधर्मा स्वामी गणधर के पास जाकर जीवन पर्यंत ब्रह्मचर्य का पच्चक्खान लेकर आऊँ । ऐसा सोचकर वे गणधर के पास जाकर आजीवन ब्रह्मचर्य पालन का व्रत लेकर घर आये । मातापिता को उन्होंने कहा : 'मैं आपकी आज्ञा से सुधर्मा स्वामी से दीक्षा लेना चाहता हूँ। ऐसा वज्र जैसा उनका वचन सुनकर मातापिता ने अपने पुत्र पर के स्नेह से मोहित होकर संयम की दुष्करता, वगैरह का वर्णन किया । उनको बढिया उत्तर देकर जंबूकुमार ने अपने मातापिता को निरुत्तर किया । इससे वे बोले, 'हे वत्स ! तेरे लिये प्रथम से तय की हुई आठ कन्याओं से ब्याह करके हमारे मनोरथ पूर्ण कर, बाद में तू चाहे वैसे करना।' इस प्रकार कहने पर उसके मातापिता ने सोचा कि शादी के बाद स्त्रीयों के प्रेम में पड़ने "के बाद वह संसार नहीं छोड़ पायेगा । जंबूकुमार ने अनिच्छा से मातापिता की आज्ञा मानी । आठों कन्याओं के साथ पाणिग्रहण किया मगर ब्याह से पहले ही आठों कन्याओं को अपने मनोरथ जंबूकुमार ने कहलवाये थे । परंतु आठों कन्याओं ने कहा कि, 'हमारे तो इसी भव में या परलोक में जंबूकुमार ही स्वामी है ।' ऐसा कहकर वे जंबूकुमार से ब्याही। शादी के बाद स्पृहारहित जिन शासन के चमकते हीरे • २७७

Loading...

Page Navigation
1 ... 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356