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तो जब वे भोग प्राप्त हुए ही है तो व्रत के आचरण से क्या? खेत में वृष्टि से ही अन्न पका हो तो कुंए से पानी खींचकर सिंचाई करने का प्रयास कौन करे?' कुमार ने उसको उत्तर दिया, 'हे प्रिया! तेरी बुद्धि बराबर ठीक तरह से चल नहीं रही है। और ऐसा बोलने से तेरा अदीर्घदर्शीपन प्रकट होता है,
और वह अन्य के लिये हितकारी नहीं है। क्योंकि स्वर्ग तथा मोक्ष देनेवाले इस मनुष्य देह को ही लोग भोग-सुख में गवाते हैं। वे मूल धन को खानेवाले की भाँति अत्यंत दुःखी परिणाम प्राप्त करते हैं। इसलिये हे प्रिया! जल्दी से नाश पानेवाले ऐसे इस मनुष्य जन्म को पाकर मैं इस प्रकार करूंगा कि जिससे किसी भी समय पर पश्चात्ताप करना न पडे।'
तत्पश्चात् सातवीं कृनकवती ने पूछा : 'हे नाथ! हाथ में रहे 'रस को उंडेलकर पात्र के काँठे चाटना' - कहावत को आप सत्य करके दिखा रहे हो।' जंबू ने कहा, 'हे गोरे अंगवाली प्रिया! भोग हाथ में आये फिर भी नाश हो जाते हैं, इससे उसमें मनुष्यों का स्वाधीनपना है ही नहीं, फिर भी हाथ में आये हुए मानते हैं कि वे भूत की तरह भ्रम हुए है - ऐसा समझना। विवेकीपुरष स्वयं ही भोग के संयोगों का त्याग करते हैं और जो अविवेकी पुरुष उसका त्याग नहीं करते उनका तो भोग ही त्याग करता है।'
तत्पश्चात् अंतिम जयश्री (आठवीं) बोली, 'हे स्वामी! आप सत्य कहते हो, परंतु आप परोपकाररूपी उत्तम धर्म को ग्रहण करनेवाले हो; इसलिये भोग की इच्छा करे बिना हम पर उपकार करने के लिये हमारा सेवन करो। मनुष्यों के ताप को दूर करने रूपी उपकार के लिये वृक्ष स्वयं धूप सहन करते हैं।
और क्षीर समुद्र का पानी भी मेघ के संयोग से अमृत समान बनता है। इस प्रकार आपके संयोग से प्राप्त हुए भोग भी हमारे सुख के लिए होंगे।'
कुमार ने कहा, 'हे प्रिया! भोग से क्षण मात्र दुःख-सुख होते हैं। परंतु चिरकाल तक दुःख होता है। ऐसे परमात्मा के वचन से मेरा मन उससे निवृत्ति हुआ है, और उसमें भी तुम्हारा कुछ कल्याण हो - ऐसा मुझे लगता नहीं है। इसलिए हे कमल जैसे नेत्रोंवाली प्रिया! इस प्रकार के अहितकारी भोग में आग्रह करना वह कल्याणकारी के लिये नहीं है। कुमनुष्यों में, कुदेवोमें, तिर्यंचों में और नरक में भोगी जन जो दुःख पाते है वह सर्वज्ञ ही जानते है।'
जिन शासन के चमकते हीरे . २८०