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श्री हेमचन्द्रसूरीजी ने कुमारपाल को शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा का फल बताया । कुमारपाल ने प्रसन्न होकर यात्रा करने की हाँ कही। बड़े संघ के साथ पैदल यात्रा जाने के लिए तेजी से तैयारियां होने लगी मगर न सोचा हुआ एक विघ्न आया । गुप्तचरों ने आकर राजा कुमारपाल को कहा : 'राजा कर्ण विशाल सैन्य साथ गुजरात की तरफ चला आ रहा है। तीन दिन में वह पाटण की सीमा पर पहुँचेगा। राजा को कर्ण का कोई भय न था । ऐसे कई कर्ण आवे तो भी मुकाबला कर सके ऐसा था; परंतु उसे चिंता हुई तीर्थयात्रा की।
कुमारपाल यात्रा पर निकल जाय तो उसकी अनुपस्थित का लाभ लेने के लिये राजा कर्ण ने आक्रमण की योजना बनायी थी ।
कुमारपाल ने गुरुदेव का ही मार्गदर्शन लेने का निर्णय लिया, क्यों कि तीर्थ यात्रा करनी ही थी । और तीर्थयात्रा के लिए निकले तो राजा कर्ण गुजरात जीत ले ।
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वाग्भट्ट मंत्री के साथ कुमारपाल ने उपाश्रय पर आकर इस बारे में सलाह
माँगी।
सूरीजी ने थोड़ी देर आँखे बंद करके ध्यान धरा और कुमारपाल को कहा, 'चिंता छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए समयानुसार निकलने की तैयारी करो। कर्ण की चिंता छोड़ दो ।'
राजा और मंत्री महल में तो आये परंतु समझ न सके कि किस प्रकार सूरीजी यह प्रश्न हल करेंगे ।
कुमारपाल सोचता रहा । सूरीजी की आज्ञानुसार धर्मध्यान में मग्न था। सुबह होते ही महल में उसे अपने गुप्तचर ने आकर समाचार दिया कि 'राजा कर्णदेव तेजी से पाटण की तरफ बढ़ रहा था। वह हाथी पर बैठा हुआ था । रात्री होने से कर्ण को हलका सा नींद का झोंका आ गया। इतने में उसके गले का महामूल्यवान हार एक पेड़ की डाली में फँस गया, हाथी तीव्र वेग से चल रहा था। इस कारण गले का हार उसका फांसी का फंदा बन गया और थोडी ही क्षणों में राजा का शब पेड के साथ लटकता हुआ सैन्य को दिखने लगा । सैन्य हताश हो गया और आया था उसी रास्ते वापिस लौट गया।
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यह समाचार सुनकर कुमारपाल आश्चर्यमुग्ध हो गया। श्री हेमचन्द्राचार्य की अथाग कृपा का परिणाम वह समझ सका । तय किये हुए मुहूर्त पर संघ निकला।
जिन शासन के चमकते होरे • २६७