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-श्री पादलिप्ताचार्य
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अयोध्या नगरी में पडीमा श्राविका के पुत्र ने आठ वर्ष की उम्र में नागहस्तीसूरी से दीक्षा ली थी। एक बार एक शिष्य किसी श्रावक के घर से चावल का धोवन गोचरी में लाया और गुरु को दिखाया। गुरु ने कहा, 'तूं भले ही ले आया मगर इसकी आलोयणा जानता है?' यहाँ पर गुरु का पूछने का भाव यह था कि यह धोवन कई बार सचित होता है और कई बार अचित्त होता है इसलिये यह धोवन विचार करके लाया है न? यदि विचारे बिना लाया हो तो उसकी आलोयणा लेनी पडेगी। यहाँ आलोयणा एक प्रकार की शिक्षा के अर्थ में गुरु ने पूछा, पर शिष्य तो व्याकरण के हिसाब से सोचने लगा, इसलिये आलोयणा एक नाम है अथवा विचारने की क्रिया है, इसलिये गुरु पूछ रहे हैं कि यह धोवन सोच कर लिया है या नहीं? इसलिये उसने जवाब दिया, 'हा महाराज! लाल कमल के पत्र जैसे जिसके नेत्र हैं. प्रफुल्लित पुष्प कलियाँ जैसी जिसकी दंत पंक्तियाँ हैं, ऐसी नवपरिणीत युवा स्त्री ने, नये धान के छड़े हुए चावल का जमाया धोवन बड़े हर्षपूर्वक दिया है।' ऐसा शृंगारिक जवाब सुनकर गुरु कोपायमान हो गये, वे शीघ्र बोल उठे, "जा जा 'पलीत' (पाप से लिप्त)।" तब उसने गुरु के समीप जाकर कहा, "महाराज! आपने मुझे जो आशीर्वाद दिया उसमें एक अक्षर और एक काना (चरण) बढा दीजिये न! जिससे मैं 'पायलित्त' बन जाऊँ (पायलित याने पैर में लेप करने से ऊडने की शक्ति आवे ऐसा)।" गुरु महाराजा इस शिष्य की बुद्धि देखकर नाराज होने के बजाय उस पर प्रसन्न हुए और उसे वह विद्या दी। इतना ही नहीं अंत में उसकी योग्यता देखकर उसका नाम 'पादलिप्ताचार्य' स्थापित करके आचार्य पद भी दिया। ___ पादलिप्ताचार्य गुरुकृपा से महाविचक्षण हुए और अनुक्रम से विहार करके
खेडा नगर आये। वहाँ (१) जीवाजीवोत्पत्ति प्राभृत, (२) विद्या प्राभृत, (३) सिद्ध प्राभृत, (४) निमित्त प्राभृत - ऐसी चार सिद्ध विद्याएँ प्राप्त की। इससे कई वस्तुओं का योग मिलाकर पांव पर लेप करने से आकाश में ऊडने की शक्ति उन्होंने प्राप्त की जिससे वे रोजाना पांचों तीर्थ की यात्रा करके आने
जिन शासन के चमकते हीरे • २७०