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-श्री क्षुल्लककुमार
[बहोत मई थोडी रही]
साकेत नामक नगर में पुंडरिक नामक राजा राज्य करता था। उसका छोटा भाई कंडरीक युवराज पद पर था। कंडरिक को यशोभद्रा नामक अति रूपमती स्त्री थी। उस स्त्री को देखकर पुंडरीक राजा कामराग में मग्न हुआ। इससे उसने दासी द्वारा अपनी इच्छा कहलवायी। यशोभद्रा ने जवाब में कहलवाया, 'हे पूज्य! आपं समग्र प्रजा के स्वामी हो, इससे नीतिपथ का त्याग करना आपको उचित नहीं है। इस प्रकार का यशोभद्रा का वचन दासी ने राजा को कहा, सो राजा ने दुबारा कहलवाया – 'हे स्त्री!स्त्रियों का 'ना' कहने का स्वभाव ही होता है, परंतु हे कृशांगी! मज़ाक छोड़कर मुझे पति के रूप में अंगीकार कर।' यशोभद्रा ने कहा, 'कुल तथा धर्म की मर्यादा मैं छोडूंगी नहीं। ऐसे दुष्ट वचन बोलते हुए लज्जा क्यों नहीं पाता।' यह सुनकर राजा ने सोचा, 'जहाँ तक मेरा भाई कंडरीक जीवित है वहाँ तक यह मुझे चाहेगी नहीं, इसलिये उसे मार डालूं।' ऐसा मानकर कपट से अपने छोटे भाई को मार डाला।
विधवा होने के बाद यशोभद्राने सोचा, 'जिस दुष्ट ने अपने भाई की हत्या की वह अवश्य मेरा भी शील भंग करेगा ।सो मुझे परदेश जाना योग्य है।' गर्भवती यशोदा गुप्त रूप से वहाँ से भाग गई; और 'शील रक्षण करने के लिए दीक्षा समान कोई श्रेष्ठ साधन नहीं है।' - ऐसा मानकर दीक्षा ग्रहण की। अनुक्रम से गर्भ वृद्धि प्राप्त करने लगा। यह देखकर सर्व साध्वी वगैरह ने उससे पूछा तब उसने सर्व सत्य वृत्तांत कह बताया। श्रावकों के शासन की हेलना न हो मे उसे रखा। समय पूर्ण होने पर उसे पुत्र जन्मा, वह श्रावकों के घर बड़ा होने लगा। श्रावकों ने उसका लालनपालन किया और उसका नाम क्षुल्लककुमार रखा। वह कुमार आठ वर्ष का हुआ तब उसे दीक्षा दी : परंतु चारित्रावरण मोह का उदय होने से उसके चित्त में विषयवासना उत्पन्न हुई। इससे उसने अपनी साध्वी माता को कहा, 'हे माता! विषय का सुख अनुभव करने के बाद मैं फिर से व्रत ग्रहण करूंगा।' उसकी माता ने कहा : 'हे पुत्र ! ऐसा संयम का सुख छोड़कर तुच्छ विषय में क्यों आसक्ति करता है? यदि तुझे संयम की इच्छा न हो तो बारह वर्ष तक मेरे वचन से मेरे पास रहकर जिनेश्वर की वाणी सून।' इस प्रकार अपनी माता के वचन सुनकर वह उतने समय तक रहा, और अपनी साध्वी माता से हमेशा वैराग्यमय वाणी सुनने लगा। परंतु उसके मन में लेशमात्र वैराग्य उत्पन्न हुआ नहीं। ___ बारह वर्ष पूरे होते ही उसने माता से अनुमति माँगी, तब उसने कहा, 'हे पुत्र !
जिन शासन के चमकते हीरे • २२२