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८५- श्री मृगापुत्र (लोढिया)
श्री वीरप्रभु पृथ्वी को पवित्र करते करते मृग नाम गाँव के उद्यान में पधारे। प्रथम गणधर श्री इन्द्रभूति प्रभु की आज्ञा लेकर मग गाँव में गोचरी के लिये गये। वहाँ से एषणीय अन्नादि लेकर लौटते हुए गाँव में एक अंध और एक वृद्ध कोढी को देखा। उसके मुख पर मक्खियाँ भिनभिना रही थी और वह कदम कदम पर स्खलित होता था। ऐसे दुःख के घर रूप उसको देखकर गौतम स्वामीने (श्री इन्द्रभूति) प्रभु के पास आकर पूछा, हे भगवान! आज मैंने एक एसे महा दुःखी पुरुष को देखा है कि उसके जैसा विश्व में कोई दु:खी होगा!'
प्रभु बोले, 'हे गौतम! उसे कोई बड़ा दुःख नहीं है। इसी गाँव में विजय राजा की पत्नी मृगावती नामक रानी है। उसका प्रथम पुत्र लोढिया जैसी आकृतिवाला है, उसके दु:ख के आगे इसका दुःख कुछ भी नहीं है। वह मृगापुत्र मुख, नेत्र और नासिकादिक रहित है। उसके देह में से दुर्गंधी रुधिर
और भवाद बहता रहता है । वह जन्म लेने के बाद सदैव भूमिगृह में ही रहता है। इस प्रकार सूनकर गौतम स्वामी चकित हुए और प्रभु से आज्ञा लेकर कर्म के विपाक की भयंकरता को देखने की इच्छा से राजा के घर गये । राजापत्नी मृगावती गणधर महाराज को अचानक आये हुए देखकर बोली, 'हे भगवान! आपका दुर्लभ आगमन आकस्मिक क्यों हुआ है?' गणधर भगवंत बोले, 'मृगावती ! प्रभु के वचन से तेरे पुत्र को देखने आया हूँ।' रानी ने तुरंत अपने सुन्दर आकृतिवाले पुत्र बताये, तो गणधर बोले, 'हे राजपत्नी! इनके सिवा तेरे जिस पुत्र को भूमिगृह में रखा है उसे बता।' मृगावती बोली, 'भगवान! मुख पर वस्त्र बांधो और पलभर राह देखो. जिससे मैं भूमिगृह खुलवाऊं और कुछ दुर्गंध निकल जावे ऐसा करूं । पश्चात् क्षण भर बाद मृगावती गौतम स्वामी को भूमिगृह में ले गयी। गौतम स्वामीने नजदीक जाकर मृगावती के पुत्र को देखा। वह पैर के अंगूठे, होठ, नासिका, नेत्र, कान और हाथ बगैर का था; जन्म से नपुंसक, बधिर और गूंगा था। दुस्सह वेदना भोगता था। जन्म से लेकर शरीर के अंदर की आठ नाडी में से और बाहर की आठ नाड़ी में से रुधिर
जिन शासन के चमकते हीरे . २२७