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(असंख्यात) हैं। मुनि सुप्रत स्वामी के समय में आप इन्द्र हुए हो, वर्तमान चौबीसी के आखरी चार तीर्थंकरों के पांच कल्याणकों का उत्सव आपने किया है। और अगली चौबीसी के कई तीर्थंकरों की वंदना तथा पूजा आप करोगे। आपका आयुष्य दो सागरोपम में कुछ कम बचा है।' कालिकाचार्य के वचन सुनकर इन्द्र बड़ा हर्षित हुआ। तत्पश्चात् निगोद का स्वरूप पूछकर उसे समझकर निःशंक बने। और श्री सीमंधर स्वामी ने की हुई प्रशंसा सुनाकर उन्होंने कहा, 'हे स्वामी ! मेरे लायक काम बताइये।' तब गुरु बोले, 'धर्म में आसक्त हुए संघ का विघ्न निवारण करें।' तत्पश्चात् इन्द्र ने अपनी इच्छा से अपने आने की निशानी के रूप दिव्य व मनोहर उपाश्रय का एक द्वार दूसरी दिशा में करके शीघ्र ही स्वर्ग लौट गये।
सूरीजी के शिष्य जो गोचरी के लिये नगर में गये थे वे आये, उन्होंने गुरु को कहा, 'हे स्वामी ! इस उपाश्रय का द्वारा दूसरी दिशा में कैसे हो गया? आप भी विद्या के चमत्कार देखने की स्पृहा रखते हैं ? तो हमारे जैसों को वैसा करने में क्या दोष?' ऐसा सुनकर गुरु ने इन्द्र का आगमन वगैरह सर्व वृत्तांत यथार्थ कहा। तब शिष्य बोले, 'हमें भी इन्द्र का दर्शन कराईये।' गुरु ने कहा, 'देवेन्द्र मेरे वचनों के आधीन नहीं है। वे तो अपनी इच्छा से आये थे और गये। उनके लिए दुराग्रह करना उचित नहीं है।' गुरु के ऐसा कहने पर भी विनयरहित शिष्यों ने दुराग्रह छोड़ा नहीं और विनय रहितता से आहार वगैरह करने - कराने लगे। इससे उद्वेगित होकर गुरु एक रात्रि के अंतिम प्रहर में सब शिष्यों को सोता छोड़कर, एक श्रावकको जगाकर, परमार्थ समझाकर नगरी के बाहर निकल चले। अनुक्रम से विहार करते करते वे दक्षिण देश की स्वर्णभूमि पर आ पहुँचे। वहाँ बुद्धिमान सागर नामक अपने शिष्य के शिष्य रहते थे। उनके पास आकर इर्यापथिकी प्रतिक्रमण करके पृथ्वी प्रमार्जन करके रहे। सागर मुनि ने उन्हें कभी देखा न था इसलिए उन्हें पहचाना नहीं। और इसी कारण वे खड़े नहीं हुए तथा वंदना भी न की। उन्होंने सूरी को पूछा, 'हे वृद्ध मुनि! आप किस स्थान से पधार रहे हैं?' गांभीर्य के समुद्र समान गुरु शांत चित्त से बोले, 'अवन्ति नगरी से। तत्पश्चात् उनको ज्ञानपूर्वक समग्र क्रिया करते देखकर सागर मुनि ने सोचा, 'वाकई यह वृद्ध बुद्धिमान
जिन शासन के चमकते हीरे • १७१