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का उपदेश दिया वह भी प्रतिबोध पाकर श्राविका बनी और 'नंदराजा के भेजे हुए पुरुष के सिवा अन्य सर्व मेरे बंधु समान हैं ऐसा अभिग्रह लिया।
अब वर्षाऋतु पूर्ण हो गयी तो वे तीनों साधू अपने अपने अभिग्रह का यथाविधि पालन करके गुरु के पास आये। प्रथम सिंह की गुफा के पास रहनेवाले साधू को आता देखकर गुरु कुछ उठकर बोले, 'हे वत्स! दुष्कर कार्य करनेवाले! तेरा स्वागत है, तुझे शाता तो है न?' उस प्रकार अन्य दो साधु आये तब उनका भी गुरु ने भली प्रकार से स्वागत किया। स्थूलभद्र को आते देखकर गुरु खड़े हो गये और बोले, 'हे महात्मा! देह दुष्कर-दुष्कर कार्य को करनेवाले तेरा स्वागत है।' यह सूनकर उन तीन साधुओं में से सिंहगुफावासी मुनि ने इर्ष्या से सोचा, 'यह स्थूलभद्र मंत्री का पुत्र होने से. उनको गुरु हमारे से अधिक बहुमान से बुला रहे हैं। चित्रशाला में रहे षट्स भोजन का आहार करनेवाले और स्त्री के संग में बसे इन स्थूलभद्र को गुरु को दुष्कर दुष्कर कार्य करनेवाले कहे, तो अब मैं भी अगले चतुर्मास में ऐसा ही अभिग्रह करूंगा। ऐसा सोचकर महाकष्ट में आठ मास व्यतीत किये। पश्चात् वर्षाकाल आया तब सिंहगुफावासी अभिमानी साधू ने सुरी को कहा, 'मैं स्थूलभद्र की भाँति कोशा के घर में यह चातुर्मास बीताऊँगा।' गुरु ने सोचा, यह साधू स्थूलभद्र से इर्ष्या और स्पर्धा के कारण जरूर ऐसा अभिग्रह कर रहा है।' पश्चात् गुरु ने उपयोग देकर उसे कहा, 'हे वत्स! तूं यह अभिग्रह मत ले। इस अभिग्रह का पालन करने में एक स्थूलभद्र ही समर्थ है, अन्य कोई समर्थ नहीं है । क्योंकि 'शायद स्वयंभू रमण सागर भी सुख से पार किया जा सकता है लेकिन यह अभिग्रह धारण करना तो दुष्कर से भी दुष्कर है।
इस प्रकार गुरु के कहे वचनों की अवगणना करके वह अभिमानी साधू कोशा के घर गया। कोशा ने उनको देखकर भांप लिया, 'जरूर यह साधू मेरे धर्मगुरु से स्पर्धा के लिये आया लगता है। ऐसा मानकर उसने मुनि की अवज्ञा की। मुनि ने चातुर्मास व्यतीत करने के लिये चित्रशाला में जगह माँगी। वह उसने दी। तत्पश्चात् कामदेव को उद्दीपन करनेवाला षट्रसवाला भोजन कोशा ने मुनि को बहोराया। मुनि ने आहार किया। दो-चार दिन बीत गये मगर कोशा मुनि के पास जाती नहीं हैं। अंत में मुनि ही उसे बुलाने लगे। मध्याह्न के समय प्रथम की तरह ही वस्त्राभूषण पहनकर कोशा मुनि की परीक्षा करने आयी। उसके हावभाव, कटाक्ष
जिन शासन के चमकते हीरे . २१८