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६९- श्री कालिकाचार्य और सागराचार्य
उज्जैन नगरी में श्री कालिकाचार्य नामक आचार्य उग्रविहारी और महाज्ञानी थे। परंतु उनके शिष्य साधू के आचार पालने में शिथिल थे। उन्हें आचार्य हमेशा सीख देते थे मगर वे कुत्ते की दुम की भाँति वक्रता छोड़ते न थे। इससे खेद पाकर आचार्य ने सोचा, 'इन शिष्यों को सुधारने में मेरा स्वाध्याय बिगड़ता है - बराबर नहीं हो सकता। वे मेरी सीख को योग्य दाद देते नहीं है इसलिये इनका दूसरा कोई उपाय करना चाहिये।' ___ एक बार सीमंधर स्वामी को इन्द्र ने पूछा कि, 'हे स्वामी ! इस समय भरतक्षेत्र में ऐसा कोई विद्वान है कि जिन्हें पूछने पर आपने वर्णन किया वैसा निमोद के स्वरूप का यथार्थ वर्णन करें?' तब प्रभु ने कहा, 'हे इन्द्र ! इस समय भरतक्षेत्र में आर्य कालिकाचार्य हैं जो श्रुत पाठ के बल से, मैंने कहा उसी प्रकार से निर्मोद का स्वरूप कह सकते हैं।' यह सुनकर इन्द्र ने उसकी परीक्षा करने के लिये वृद्धावस्था से झीर्ण हुआ शरीर बनाकर धीरे धीरे लकड़ी के सहारे चलते हुए कालिकाचार्य के पास आयें और लुहार की धौंकनी के भांति श्वासोच्छश्वास लेते हुए गुरु को वंदन करके पूछा, 'हे स्वामी ! मैं वृद्ध हूँ और वृद्धावस्था से पीडित हूँ। मेरा कितना आयुष्य और बाकी है वह आप मेरी हस्तरेखाएँ देखकर शास्त्र के आधार से कहो। मुझ पर कृपा करो। मेरे पुत्रों तथा स्त्री ने मुझे निकाल दिया है। मैं अकेला महाकष्ट में दिन बीता रहा हूँ। आप दयावान हो, इससे मुझ पर कृपा करो।' श्री कालिकाचार्य ज्ञानबल से जान गये कि ये सौधर्म देवलोक के इन्द्र हैं, इसलिए वे मौन रहे तब दुबारा वह वृद्ध बोला, 'मैं बुढ़ापे से पीडित हूँ, इसलिये ज्यादा समय यहाँ रहने के लिये अशक्त हूँ सौ मुझे जल्दी उत्तर दीजिये कि अब मेरा आयुष्य कितना शेष है ? क्या पांच वर्ष शेष हैं या उससे अधिक हैं ?' आचार्यश्री ने कहा, 'उससे भी अधिक है।' वृद्ध बोला : 'क्या दस वर्ष का है ?' गुरु ने कहा, 'उससे भी अधिक है।' वृद्ध ने फिर पूछा, 'क्या बीस या तीस वर्ष का आयुष्य बाकी है ? हे गुरु ! सत्य कहें।' गुरुने कहा, 'बार बार क्या पूछते हो? आपका आयुष्य अंको की गिनती में आये वैसा नहीं है, क्योंकि वह अपरिमित
जिन शासन के चमकते हीरे • १७०