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- शीलवती
जो मनुष्य अपनी विवाहित स्त्री से संतुष्ट होकर परस्त्री से विमुख रहते हैं वे गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचारीपने से यति समान कहलाते हैं।' इस बारे में निम्नानुसार प्रबंध है।
श्रीपुर नगर में कुमार एवं देवचन्द्र नामक दो राजकुमार बंधु थे। एक बार वे धर्मगुरु की देशना सुनने उद्यान में गये। वहाँ गुरु ने देशना में कहा कि 'कोई मनुष्य कोटी सुवर्णमुद्राओं का दान दे अथवा श्री वीतराग का कंचनमय प्रासाद बनायें तो इससे उसे उतना पुण्य नहीं होता जितना ब्रह्मचर्य धारक को होता है। कितने ही प्राणी शीलवती की भाँति दुख में भी अपना शीलव्रत छोडते नहीं है, यह कथा इस प्रकार है। __लक्ष्मीपुर नगर में समुद्रदत्त नामक श्रेष्ठी था। वह अपनी शीलवती नामक प्रिया को घर पर छोड़कर सोमभूति नामक एक ब्राह्मण के साथ परदेश गया। विप्र तो कुछ दिन रहकर श्रेष्ठि का संदेशपत्र लेकर अपने घर लौट आया।खबर मिलते ही शीलवती अपने पति का भेजा हुआ संदेशपत्र लेने के लिए सोमभूति के घर गई। विप्र उस सुंदर स्त्री को देखकर कामातुर हुआ। वह बोला, 'हे कृशोदरी ! प्रथम मेरे साथ क्रीडा कर, तत्पश्चात् मैं तेरे पति का संदेशपत्र दूंगा । वह चतुर स्त्री सोचकर बोली, 'हे भद्र ! रात्रि के प्रथम प्रहर में आप मेरे घर आएँ।' इस प्रकार कहकर वह सेनापति के पास गई और कहा, 'हे देव ! सोमभूति मेरे पति का संदेशपत्र लाया है लेकिन मुझे देता नहीं है। यह सुनकर और उसके सौंदर्य पर मोहित होकर वह बोला, 'हे सुंदरी ! प्रथम तो मैं कहूँ वह स्वीकार ले तो तुझे पत्र दिला दूं।' व्रतभंग के भय से उसे दूसरे प्रहर में अपने घर पधारने का निमंत्रण देकर मंत्री के पास गई। उसको फरियाद की, उसने भी मोहित होकर वैसी ही पापी माँग की। और तीसरे प्रहर रात्रि को अपने घर पधारने का कहकर वह राजा के पास शिकायत करने गई। राजा ने भी उसे वैसी ही बात की। इस कारण वह चौथे प्रहर अपने घर पधारने का निमंत्रण देकर अपने घर लौट आई। अपनी सास के साथ संकेत निश्चित किया कि, आप मुझे रात्रि के चौथे प्रहर में बुलायेगी, इस प्रकार संकेत बताकर वह अपने एकांतवास में तैयार खड़ी रही।
जिन शासन के चमकते हीरे • १४७